वासु गुप्त की स्पन्द कारिका : स्पंदन और परा वाक्
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स्पन्दकारिका को देख लेने की सलाह मुझे मेरे मित्र पीयूष मिश्र ने लगभग डेढ़ साल पहले दी थी। मैंने इसे तभी डॉनलोड कर लिया था और सरसरी निगाह से देखा भी था। आज वह काम में आयी।
स्पन्द कारिका (Spanda Kārikā) कश्मीर शैव दर्शन की प्रत्यभिज्ञा शाखा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे वासुगुप्त या उनके शिष्य कल्लट द्वारा रचित माना जाता है (हालाँकि कुछ विद्वानों में मतभेद है)। यह ग्रंथ "स्पन्द" — अर्थात् चेतना की सूक्ष्मतम गति या कंपन — को ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत करता है।
स्पन्द कारिका का सारांश
मुख्य विषय:
स्पन्द कारिका यह प्रतिपादित करती है कि सम्पूर्ण जगत, व्यक्त और अव्यक्त, एक ही स्पन्दनशील चेतना की अभिव्यक्ति है। यह चेतना स्थिर नहीं, बल्कि एक नित्य गतिशील सत्त्व है — जिसका यह कंपन (spanda) ही उसकी सृजनात्मक शक्ति है।
मुख्य सिद्धांत:
1. स्पन्द = शिव का सूक्ष्मतम स्वरूप
"शिव" केवल निष्क्रिय ब्रह्म नहीं, बल्कि चेतना का वह स्वरूप है जिसमें स्व-प्रकाश और क्रियाशीलता दोनों एकत्र हैं।
स्पन्द उसी शिव की वह "सूक्ष्म, अप्रकट, लेकिन नित्य क्रियाशील लय" है।
2. अनुभव, न तर्क ही प्रमाण
यह दर्शन प्रत्यक्ष अनुभव (pratyakṣa anubhava) को प्राथमिक मानता है — विशेषकर ध्यान, समाधि और आन्तरिक बोध के माध्यम से।
स्पन्द किसी स्थूल गति (movement) का नाम नहीं, बल्कि वह अविकल्प जागरूकता की ध्वनि है जो ध्यान के गहन स्तरों में अनुभव की जाती है।
3. जगत = स्पन्द का विकास
सृष्टि, स्थितिः और संहार — ये सभी एक ही चेतना के विभिन्न "स्पन्द" हैं।
इसलिए बन्धन और मोक्ष भी उसी एक चेतना के स्वरूपों की विकल्पात्मक अनुभूतियाँ हैं।
4. जीव = शिव, अज्ञान से भिन्नता का अनुभव
जीव (संसारी आत्मा) और शिव (परमात्मा) में कोई मूलभूत भिन्नता नहीं है — भिन्नता केवल स्पन्दन के ज्ञान की है।
5. विचारशून्यता में ही परा शक्ति का अनुभव
जब मन विकल्पों से रहित हो जाता है, तब स्पन्द का अनुभव सम्भव होता है — यह 'शून्य' नहीं, बल्कि पूर्ण सक्रियता का क्षण होता है।
परा वाक् से संबंध
परा वाक् — भाषिक अभिव्यक्ति की सबसे गूढ़ और मौन अवस्था — स्पन्द दर्शन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
1. परा वाक् = स्पन्द का ध्वनिरूप
परा वाक् वह अवस्था है जहाँ शब्द अभी तक ध्वनि या अभिव्यक्ति नहीं बना है, लेकिन वह स्पन्दन रूप में विद्यमान है।
यह मौन चेतना का कम्पन है — न विचार है, न उच्चारण — केवल "स्व-विभासित शक्ति"।
2. स्पन्द = परा वाक् का चेतन स्पंदन
परा वाक् मौन शब्द है, और स्पन्द उसका जीवित लय।
परा वाक् का कंपन ही आगे पश्यन्ती → मध्यमा → वैखरी में परिणत होता है, परन्तु उसकी मूल स्पन्द अवस्था बनी रहती है — जैसे बीज में वृक्ष की संभावना।
3. योगिक साधना में लक्ष्य = परा वाक् / स्पन्द की प्रतीति
जब साधक विकल्पातीत चित्त में स्थित होता है, तब वह बाहर नहीं बोलता, लेकिन भीतर कुछ 'गूँजता' है — यही वह परा वाक् है जो स्पन्द के रूप में जानी जाती है।
यह स्थिति ब्रह्मा की सर्जनात्मक शक्ति का भी स्रोत है — नाद के रूप में।
स्पन्द कारिका एक सूक्ष्म, अद्वैत, चेतनावादी दर्शन है जो शिव को एक कम्पायमान, अनुभवगम्य सत्ता के रूप में देखता है।
इसमें परा वाक्, उस चेतना का मौन, अजन्मा, अव्यक्त, लेकिन पूर्णतः सक्षम रूप है — जहाँ शब्द अभी संभावना मात्र है।
इस ग्रंथ का लक्ष्य है — साधक को अपने भीतर के स्पन्द को पहचानने और उसमें स्थित होने की शिक्षा देना, जहाँ श्रवण नहीं, अनुभव बोलता है।
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