भारत में डीप स्टेट और सॉफ्ट स्टेट: एक राजनीतिक-दार्शनिक विवेचन
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भारत की राजनीति और व्यवस्था को लेकर मैं चिंतित हूं और डरा हुआ भी हूं। आज जो मैं देखता सुनता हूं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में टकराव, नेताओं के असंयत और गैरजिम्मेदाराना भाषण, वोट की अंधी और विध्वंसक राजनीति के लिए देश और समाज विरोधी षड़यंत्र और नीतियां, अपराध और अपराधियों का कानून या प्रक्रियाच्छन्न संरक्षण, कूटनीतिक हथकंडे, बुद्धिजीवियों की उदासीनता या लोलुपता - ये सारी चीजें उद्वेलित करने वाली हैं। इसीलिए यह लेख लिख रहा हूं। मुझे राजनीति की कोई ढंग की समझ नहीं है। फिर भी, अपनी बेचैनी का क्या करूं! जो जितना समझता हूं, लिख रहा हूं। मैं और कर भी क्या सकता हूं!
भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाला राष्ट्र, एक ऐसी राजनीतिक संरचना का उदाहरण है जिसमें राज्य सत्ता और समाज के बीच संबंध सतही रूप से लोकतांत्रिक प्रतीत होता है, परंतु गहराई में उतरने पर एक अदृश्य शक्ति-संरचना — जिसे 'डीप स्टेट' कहा जाता है — स्पष्ट रूप से सक्रिय दिखती है। यह मेरी धारणा है और तदनुरूप मैं भारत में डीप स्टेट की कार्यप्रणाली, इसके सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक हथियारों, तथा सॉफ्ट स्टेट (लेखांत लिंक देखें) की दुर्बलता के कारणों को राजनीतिक-दर्शन के आलोक में विश्लेषित कर रहा हूं।
* डीप स्टेट की अवधारणा और उसका भारतीय संस्करण: डीप स्टेट की संकल्पना उस सत्ता-ढांचे को इंगित करती है जो निर्वाचित सरकार से स्वतंत्र और बहुधा अधिक शक्तिशाली होती है। भारत में यह कोई एक केंद्रीयीकृत गुप्त संगठन नहीं है, बल्कि यह सत्ता-समूहों की जटिल गठजोड़ है जिसमें नौकरशाही, सुरक्षा एजेंसियाँ, न्यायिक प्रक्रियाएँ, कॉर्पोरेट पूँजी, धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठान और मीडिया जैसे विविध घटक सम्मिलित हैं। ये सभी मिलकर राज्य की नीतियों को नियंत्रित करते हैं, कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष।
* सॉफ्ट स्टेट का लक्षण और उसकी ऐतिहासिक जड़ें: गुन्नार मिर्डल ने भारत को सॉफ्ट स्टेट की संज्ञा दी थी, जिसमें कानून तो होते हैं, पर उन पर अमल नहीं होता; संस्थाएँ होती हैं, पर वे निर्णयात्मक नहीं होतीं। भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान सत्ता और नैतिकता के बीच जो अंतराल बना, वह आज तक भर नहीं सका। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक संस्थाएँ खड़ी तो की गईं, पर वे जन-चेतना, नैतिक अनुशासन और बौद्धिक स्वतंत्रता के अभाव में खोखली रह गईं।
* डीप स्टेट के चार प्रमुख हथियार:
(क) धार्मिक और जातीय वैमनस्य: भारत जैसे बहुलतावादी समाज में जाति और धर्म की पहचान को हथियार बनाकर भीड़ को नियंत्रित करना डीप स्टेट की सबसे पुरानी रणनीति है। धार्मिक ध्रुवीकरण, जातिवादी राजनीति और आस्था के नाम पर उकसाव से लोकतंत्र केवल संख्या-गणना में सिमट जाता है।
(ख) संस्थागत क्षरण: शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायिक संस्थाएँ अगर निष्प्रभावी या पक्षपाती हो जाएँ तो नागरिकों में राज्य के प्रति विश्वास डगमगाता है। भारत में विश्वविद्यालय विचारों के बजाय नौकरियाँ पैदा करने के केंद्र बन गए हैं, अस्पताल पूँजीपतियों की सम्पत्ति बन गए हैं, और न्याय की प्रक्रिया 'क्लास-बेस्ड एक्सेस' पर आधारित हो गई है।
(ग) अंडरहैंड पूँजी और भ्रष्ट पूँजीवाद: विकास की भाषा में परोसा गया यह पूँजीवाद दरअसल भ्रष्ट नेटवर्कों की पोषक भूमि है। राजनेता, अफसरशाही और व्यापारिक घराने एक 'रेन्ट-सीकिंग इकोनॉमी' का तंत्र बनाते हैं, जिसमें उत्पादकता नहीं, अनौपचारिक कमाई प्रमुख होती है। ध्यातव्य है कि क्रोनिज्म ने भारत को स्वतंत्रता मिलते ही ग्रस लिया था और वह प्रवृत्ति दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है, कुछ तो व्यक्तिगत अर्थाकांक्षा के चलते और कुछ वोट की राजनीति को ईंधन देने।
(घ) विदेशी हस्तक्षेप: IMF, World Bank, WTO, विदेशी NGOs और रणनीतिक गठजोड़ भारत की नीति निर्धारण प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं। स्वदेशी दृष्टिकोण या सांस्कृतिक-सामाजिक अनुकूलता पर आधारित नीति-निर्माण, वैश्विक पूँजी और रणनीतिक निर्देशों के सामने कमजोर पड़ जाता है।
* लोकतंत्र का विचार और उसका विघटन: लोकतंत्र केवल मताधिकार नहीं होता, वह एक सांस्कृतिक और नैतिक परियोजना है। जब लोकतंत्र को केवल चुनावों तक सीमित कर दिया जाता है, तब डीप स्टेट को खुलेआम कार्य करने का अवसर मिलता है। ऐसी स्थिति में सरकारें 'विकास' के नाम पर फैसले तो लेती हैं, पर उन निर्णयों की वैधता और प्रभावशीलता जनभागीदारी से कट जाती है।
* नागरिक समाज और जनता की भूमिका: भारत की जनता अनेक ऐतिहासिक कारणों से आत्मनिर्भर और बौद्धिक रूप से सजग नागरिक में नहीं बदल सकी। औपनिवेशिक दमन, विभाजन का मानसिक आघात, धार्मिक-जातीय पहचान की ग्रंथियाँ, और शिक्षा की उपेक्षा — ये सब उसे भावनात्मक रूप से सहज परन्तु वैचारिक रूप से असंगत बनाते हैं।
* बुद्धिजीवी वर्ग की चुप्पी और डर: शासन और पूँजी से जुड़े डर या सुविधा के कारण भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग बहुधा न तो स्पष्ट बोलता है और न ही जनसमाज से जुड़ा विमर्श रचता है। विश्वविद्यालयों का विमर्श या तो विदेशी टेम्पलेट्स से चलता है या सत्ता से सायास समझौते करता है।
* भविष्य की राह पर मेरे विचार – वैकल्पिक राजनीति और विचार की पुनर्स्थापना:
जनता में नैतिक विवेक और आत्मनिर्भरता की चेतना
शिक्षा प्रणाली में प्रश्न और विचार को प्रतिष्ठा
बौद्धिक वर्ग में साहसिकता और जनोन्मुखी रचनाशीलता
संस्थाओं की वैधानिक और नैतिक पुनर्संरचना
विकल्पधर्मी राजनीतिक चेतना की पुनर्जागृति, जैसा गाँधी, अंबेडकर, लोहिया, या जेपी के समय हुआ था।
यह गौरतलब है कि भारत का लोकतंत्र एक संक्रमणशील अवस्था में है जहाँ वह या तो एक 'सूचना-निर्भर उपनिवेश' बन जाएगा या एक 'नैतिक-सांस्कृतिक राष्ट्रराज्य' का पुनराविष्कार करेगा। यह पुनराविष्कार केवल सरकारों से नहीं, एक बौद्धिक-सामाजिक नवजागरण से संभव है। जब तक डीप स्टेट के तंत्र को विचारों, शिक्षा, और नैतिक संघर्ष के माध्यम से चुनौती नहीं दी जाती, तब तक जनता और सत्ता के बीच की खाई भरना असंभव रहेगा।
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