भारत में जातिवादी वोटवाद, समाजवाद की विफलता और धर्मसापेक्ष जागरण का भ्रम
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I. भारतीय समाज का विघटन और जनतंत्र की विडंबना
भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, परंतु इसकी सामाजिक संरचना वर्ण-जाति आधारित विघटन से इतनी गहराई तक प्रभावित रही है कि सामूहिक राष्ट्रीय चेतना का विकास लगातार अवरुद्ध होता रहा। जातियाँ उपजातियों में बँटी हुई हैं, उपजातियाँ उपउपजातियों में। और प्रत्येक इकाई स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ मानती है। ऐसी स्थिति में कोई भी विचारधारा—चाहे वह समाजवाद हो या राष्ट्रवाद—समष्टि-चेतना के स्तर तक नहीं पहुँच पाती।
यह विघटन मात्र सामाजिक नहीं, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक भी है। यह विघटन ही उस वोटवाद की नींव बनता है, जो आधुनिक भारत के लोकतंत्र को भीतर से खोखला करता है।
II. जातिवाद: जीवित रहने की रणनीति और अन्याय का ढाँचा
जातिवाद केवल एक सामाजिक उत्तराधिकार नहीं है; यह जीवित रहने का एक तंत्र (survival mechanism) बन गया है—सामाजिक संसाधनों की सुरक्षा, पहचान की रक्षा और सत्ता की भागीदारी का एक सुनिश्चित मार्ग।
परंतु यह तंत्र अन्य जातियों के प्रति अनावश्यक शत्रुता, अन्यायपूर्ण विशेषाधिकार और सामूहिक पूर्वग्रह को भी जन्म देता है। लोकतंत्र में जब वोट समूह अस्मिता के नाम पर पड़ता है, तो योग्यतम को नहीं, अपनत्व को वोट मिलता है। यही undue favour की राजनीति है—जो लोकतंत्र को गण-तंत्र नहीं, गुट-तंत्र में बदल देती है।
III. जातीयता बनाम वर्ग चेतना: समाजवाद की असंभवता
मार्क्सवादी दर्शन में वर्ग चेतना (class consciousness) परिवर्तन की मूल शक्ति मानी गई है। परंतु भारत में जातीयता की गहराई ने वर्ग को बनने ही नहीं दिया। एक ही आर्थिक स्थिति के दो व्यक्ति—यदि अलग जातियों से हैं—तो उनकी सामाजिक आकांक्षाएँ और राजनीतिक निष्ठाएँ भिन्न होंगी।
यह विघटन केवल आत्म-संरक्षण के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रयोग के लिए भी पोषित किया गया। जातिवादी दलों और सामाजिक न्याय के नाम पर बँटी राजनीति ने समाजवादी चेतना को वर्ग की बजाय जाति की लड़ाई में बदल दिया। फलतः, भारतीय समाजवाद कभी औद्योगिक श्रमिकों का आंदोलन नहीं बन पाया; वह आरक्षण, प्रतिनिधित्व और अस्मिता की राजनीति तक सीमित रहा।
IV. क्रोनी पूँजीवाद और समाजवाद का मुखौटा
भारत में जिस ‘सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी’ की घोषणा संविधान और पंचवर्षीय योजनाओं में की गई थी, वह धीरे-धीरे राज्य-प्रायोजित क्रोनी कैपिटलिज़्म में बदल गई। इसमे:
राज्य ने कुछ जातियों और वर्गों को विशेष लाभ पहुँचाए,
आर्थिक संसाधनों का बँटवारा नीतिगत सुधार की जगह वोट की गणित पर हुआ,
और पूँजीपति वर्ग ने राजनीतिक दलों से गठजोड़ करके नीति को अपने पक्ष में मोड़ा।
यह एक ऐसा छद्म समाजवाद था, जिसमें विकास की गति भी रुकी और समता भी नहीं आई।
V. वोटवाद: प्रतिरोधी शक्ति या विकास का गला घोंटने वाला?
जे.के. गालब्रेथ ने किसी तंत्र में पावर को संतुलित करने वाली शक्तियों, काउंटरवेलिंग पावर, की बात की थी। पर भारत में यह काउंटरवेलिंग पावर ‘वोटवाद’ के रूप में उभरी—जिसने जातिवादी समीकरणों को राजनीतिक शक्ति में बदल दिया।
यह वोटवाद:
जातियों के नाम पर राजनीतिक सौदेबाज़ी करता है,
सामाजिक न्याय को ‘आरक्षण बनाम आरक्षण’ की बहस में उलझाता है,
और विकास को जाति आधारित ‘पैकेज’ तक सीमित कर देता है।
फलतः, वोट की शक्ति न तो सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनी, न ही आर्थिक न्याय का। वह जातिवादी सत्ताओं के स्थिरीकरण का साधन बन गई।
VI. धर्मसापेक्ष जागरण: नया संस्करण, पुरानी राजनीति
आज जो भारत में धार्मिक जागरण की लहर है—वह पहली दृष्टि में सांस्कृतिक आत्मबोध की तरह प्रतीत होती है। पर गहराई से देखने पर यह उसी जातिवादी वोटवाद का नया संस्करण है।
यह धर्म-चेतना:
धर्म के आंतरिक मूल्यों की बजाय सांस्कृतिक प्रतीकों पर केंद्रित है,
जनता को आध्यात्मिक नहीं, राजनीतिक रूप से संगठित करती है,
और धर्म को समूहीय अस्मिता और चुनावी रणनीति में परिवर्तित कर देती है।
यह धर्मनिष्ठ जागरण नहीं, बल्कि धर्म-सापेक्ष राजनीति है—जिसका उद्देश्य समाज का शुद्धिकरण नहीं, सत्ता का पुनः विभाजन है।
VII. विघटन से समरसता की ओर - क्या कोई आशा है?
जातिवाद, वोटवाद, और धर्मसापेक्ष राजनीति—ये तीनों भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी के चरण हैं। इन्हें यदि एक निरंतरता में देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि —
जातियाँ केवल सामाजिक संरचना नहीं, राजनीतिक समीकरण बन चुकी हैं,
समाजवाद केवल एक घोषणापत्र रहा, वास्तविक संरचनात्मक परिवर्तन नहीं,
और धर्म आज केवल सांस्कृतिक पूँजी है, आध्यात्मिक मुक्ति का साधन नहीं।
यह दुखपूर्ण है कि भारत अंग्रेजों की कोलोनियलिस्ट साम्राज्यवादी नीतियों की आलोचना करता है, फिर भी समाज को बांट कर उस पर शासन करने की प्रवृत्ति को ही अपनाता है और जातीय जनगणना का इच्छुक है। जब तक भारत इस विघटन को पहचान कर उससे ऊपर उठने की चेतना नहीं विकसित करता, तब तक कोई भी विचारधारा—धर्म, समाजवाद या राष्ट्रवाद—सांस्कृतिक अस्मिताओं की कब्रगाह में दफन होती रहेगी।
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