इतिहासबोध और आत्मनिर्माण: भारत के लिए संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता
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आज भारत जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें एक गहरी मानसिक और बौद्धिक बेचैनी दृष्टिगोचर होती है। एक ओर अतीत के गौरवगान में डूबा राष्ट्र है, तो दूसरी ओर वर्तमान की विफलताओं और भविष्य की अनिश्चितताओं से घिरा हुआ समाज। ऐसे में यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है: क्या भारत एक आत्ममुग्ध ऐतिहासिक चेतना में फंसा हुआ है? और क्या यह उसकी प्रगति में बाधा बन रही है?
यह लेख इसी प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज की ऐतिहासिक चेतना, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों और विकासशील भविष्य की चुनौतियों का विवेकपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
* पश्चिमी समाजों का इतिहासबोध: एक तुलनात्मक दृष्टि
यूरोप और अमेरिका के समाजों ने भी एक अपराधमय और हिंसक अतीत जिया है — औपनिवेशिक लूट, दास व्यापार, मूल निवासियों का संहार, धार्मिक युद्ध, नस्लीय भेदभाव। अमेरिका के अधिकांश निवासी उन यूरोपीय आप्रवासियों की संतानें हैं जिन्होंने मूल अमेरिकियों की हत्या कर वहां अपना राज्य स्थापित किया। फिर भी वे इतिहास में फंसे नहीं रहते।
उनके लिए इतिहास एक सीढ़ी है — जिससे ऊपर चढ़ा जाए — न कि जंजीर जो पकड़ कर बैठा जाए। वे अतीत को स्मृति में रखते हैं, पर अपनी सामाजिक, तकनीकी और राजनीतिक ऊर्जा भविष्य की दिशा में लगाते हैं। निश्चय ही उनके विचारों में एक "upward centralitic bias" है।
* भारतीय समाज की ऐतिहासिक चेतना: स्मृति या मोह?
भारत का अतीत निस्संदेह सांस्कृतिक, दार्शनिक और बौद्धिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा है। किंतु इस अतीत को देखने की दृष्टि में संतुलन का अभाव दिखाई देता है। दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ उभरती हैं:
अतिगौरव का मोह:
"हम विश्वगुरु थे," "हमने शून्य खोजा," "हमारे वेदों में सब विज्ञान है" — ऐसी घोषणाएँ एक सांस्कृतिक आत्मविश्वास नहीं, बल्कि एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक क्षतिपूर्ति बन जाती हैं। वे न तो वैज्ञानिक समीक्षा की कसौटी पर उतरती हैं, न भविष्य निर्माण के लिए व्यवहार्य कार्यक्रम बनाती हैं। इस तरह भारतीयों में एक "downward centralitic bias" है।
अतीत की त्रुटियों पर लज्जा, उनका मजाक बनाना, या अतितार्किक औचित्यस्थापना:
इतिहास की कुछ त्रुटियाँ — जैसे जातिगत उत्पीड़न, स्त्री-वंचना, सामाजिक जड़ता — को या तो नकार दिया जाता है, या उन्हें धार्मिक, सांस्कृतिक या 'प्रासंगिक' तर्कों से जस्टीफाई किया जाता है। यह प्रवृत्ति आत्मवंचना को जन्म देती है। दूसरी तरफ अनेक पढ़े-लिखे लोग इन बातों को लेकर भारतीय संस्कृति का मजाक उड़ाकर अपने को कृतकृत्य समझते हैं।
* मनोवैज्ञानिक पहलू: आत्मगौरव और पहचान संकट
भारत का आधुनिक समाज एक गहरे पहचान संकट से गुजर रहा है। एक ओर वह पश्चिमी आधुनिकता के उपकरणों से लैस है, दूसरी ओर वह अपनी सांस्कृतिक जड़ों की तलाश में है। इस संघर्ष से तीन समस्याएँ जन्म लेती हैं:
अतीत को आदर्श मानने की प्रवृत्ति — जो नवाचार को अवरुद्ध करती है।
भविष्य के प्रति अनिश्चितता और भय — जिससे यथास्थिति को बनाए रखने की प्रवृत्ति जन्म लेती है।
वर्तमान की विफलताओं से भागने के लिए गौरवशाली अतीत का नशा — जो आत्मचिंतन को कुंद करता है।
* शिक्षा और बौद्धिक नेतृत्व की असफलता
भारतीय शिक्षा प्रणाली ने न तो इतिहास का आलोचनात्मक बोध विकसित किया, न भविष्य की कल्पना करने की प्रेरणा दी। हमारी पाठ्यचर्या में अतीत या तो स्तुति के भाव में आता है, या औपनिवेशिक लज्जा में दबा रहता है। परिणामस्वरूप, युवा पीढ़ी या तो पश्चिमी आदर्शों की नकल करती है या पुनरुत्थानवादी मिथकों में अपनी पहचान खोजती है।
बुद्धिजीवी वर्ग भी विभाजित है:
एक वर्ग संपूर्ण भारतीय परंपरा को पिछड़ापन मानता है,
दूसरा वर्ग हर परंपरा को अपरिवर्तनशील सत्य मानता है।
* वर्तमान की विफलताओं और अतीत की शरण
जब समाज को वर्तमान में न्याय, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं में निरंतर विफलता का सामना करना पड़ता है, तब वह सांस्कृतिक स्मृति में शरण लेता है। अतीत एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षित स्थान बन जाता है, जो वर्तमान की कटुता से राहत देता है — भले ही वह राहत काल्पनिक हो।
* समाधान: संतुलित इतिहासबोध और सक्रिय आत्मनिर्माण
भारत को न तो अपने भूतकालीन सांस्कृतिक उपलब्धियों पर अतिगौरव करना चाहिए, न अपनी ऐतिहासिक भूलों पर लज्जित और निरुत्साहित होना चाहिए। न ही उन गलतियों को तर्कों से छुपाना चाहिए।
भारत को चाहिए कि वह —
अतीत से प्रेरणा ले, पर उसमें फंसे नहीं,
अपनी भूलों से सीखे, पर उनमें गुलाम न हो जाए,
और अपने वर्तमान की समस्याओं को सुलझाते हुए, भविष्य का एक न्यायपूर्ण, बौद्धिक और सृजनशील मार्ग बनाए।
सच्चा इतिहासबोध वह नहीं होता जो केवल अतीत के गीत गाता है, बल्कि वह होता है जो अतीत की आँखों से वर्तमान को देखता है और भविष्य के लिए कदम उठाता है। भारत को आवश्यकता है ऐसे विवेकशील आत्मबोध की, जो न अतीत का गुलाम हो, न पश्चिम का अनुकरणकर्ता — बल्कि एक स्वतंत्र, रचनात्मक और आत्मनिर्भर राष्ट्र की चेतना को जन्म दे सके।
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