मेरी समझ में : वेद क्या हैं?
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वेद: अस्तित्व से उपलब्धि तक की ज्ञान-यात्रा
* ज्ञान की शृङ्खला: अस्तित्व से उपलभ्यता तक
इसका अनुक्रम कुछ इस प्रकार है:
1. अस्तित्व (Being)
2. ज्ञेय (Knowable part of Being)
3. ज्ञात (That which is known)
4. दस्तावेजीकरण योग्य/संचार योग्य (Documentable / Communicable part of known)
5. दस्तावेजीकृत/संचारित (Documented / Communicated)
6. उपलब्ध/सुलभ (Accessible / Available)
हम आम तौर पर वेद को छठे स्तर पर रख देते हैं। इस पारंपरिक किंतु सीमित अर्थ को लेने से अनेक भ्रम पैदा होते रहे हैं।
लेकिन व्यापक दृष्टि से वेद इस संपूर्ण यात्रा को अभिव्यक्त करता है। यह परंपरागत उलझनों को भी हल करता है।
* वेद: केवल शब्द नहीं, संपूर्ण ज्ञान-संभावना, संपूर्ण ज्ञान शृंखला। आस्तिकता इस ज्ञानशृंखला में विश्वास है।
वेद एक पुस्तक नहीं, न तो केवल शब्द-रूपित ज्ञान हैं, बल्कि ज्ञान की वह संपदा हैं जो अस्तित्व की चेतन-अचेतन परतों में निहित है, ज्ञेय और अज्ञेय के मध्य से बहती है, और अनुभव-संवाद से जीवित रहती है।
वेद =
Being (अस्ति) + Its Knowability (ज्ञेयता) + Its Realization (ज्ञात) + Its Expressibility (वाच्यता) + Its Communication (संप्रेषण) + Its Accessibility (उपलब्धता)
* वेद एक अनन्त-जीवित संरचना हैं
जिस प्रकार गणित में पाइथागोरस प्रमेय आज ज्ञात, संप्रेषित, दस्तावेजीकृत है — लेकिन उसका सत्यत्व मानव-ज्ञान से स्वतंत्र अस्तित्व रखता है,
उसी प्रकार वेद भी:
अनिर्वचनीय हैं — शब्दातीत
लेकिन संप्रेष्य हैं — शब्दमय
निराकार हैं — अनुभवमूलक
फिर भी रूपाकार हैं — मन्त्रस्वरूप
* श्रुति’ और वेद का गूढ़ तात्पर्य
'श्रुति' कहना कि "वेद सुना गया ज्ञान है" – इसका अर्थ यह नहीं कि केवल ऋषियों ने कान से सुना।
यह श्रवण एक आंतरिक अनुनाद (inner resonance) है —
जहाँ अस्तित्व मौन की भाषा में बोलता है, और ऋषि उसका श्रवण करते हैं।
* निष्कर्षरूपेण वेद क्या हैं?
वेद वह हैं जो:
अस्तित्व का साक्षात्कार कराते हैं,
ज्ञेय और अज्ञेय के बीच सेतु हैं,
ज्ञान को शब्द देने से पूर्व ही उसे आभासित करते हैं,
और जो कुछ संप्रेषित हो चुका है, उससे भी कहीं अधिक हैं।
संक्षेप में:
वेद वह संपूर्ण संरचना हैं, जिसमें ‘होने’ की गूंज ‘जानने’, ‘कहने’, और ‘साझा करने’ तक बहती है — और फिर भी उसमें शेष बचा रहता है मौन, जिसे केवल अनुभूति जान सकती है।
वेद पर कुछ और
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वेद का मूल विद धातु है। To know. विद + घञ्। यही मूल अर्थ है।
वेद की परिभाषा mythological होकर अपने मूल अर्थ से हटने लगती है।
मीनशरीरावच्छेदेन भगवद्बाक्यम् - न्यायशास्त्र॥
ब्रह्ममुखनिर्गतधर्म्मज्ञापकशास्त्रम् - पुराण॥
धर्म्मब्रह्मप्रतिपादकमपौरुषेयवाक्यम् - वेदांत॥
इन तीनों में वेदांत वाली परिभाषा अधिक सुसंगत है। इसके अनुसार
१. वेद अपौरुषेय हैं। यह स्वतःस्फूर्त ज्ञान है, यह पुरुषार्थ से प्राप्त ज्ञान नहीं है।
२. यह धर्म प्रतिपादक है। हर अस्तित्व की एक प्रकृति होती है, एक स्वभाव होता है, उसकी प्रोपर्टीज होती है। वैशेषिक की भाषा में उसके गुण, कर्म, विशेष, सामान्य और सामवायिक रचना होती है। यही उसका धर्म है। इन्हीं को वह धारण करता है। वेद इन्हीं को बतलाता है। वेद धर्म प्रतिपादक है।
३. इनका एक essence होता है। और इनके परे भी अस्तित्व है। वह ब्रह्म है। वेद इसका भी प्रतिपादन करता है।
४. इन सारी चीजों का वाक् रूप वेद है।
अब वाक् को भी समझ लें। यह इसलिए कि वैखरी में प्रस्तुत वाक् को ही वेद समझने की भूल न करें।
वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा वाणी — ये चार स्तर हैं वाणी (Speech or Expressive Consciousness) के, जिनका वर्णन मुख्यतः भारतीय तंत्र और वेदांत परंपरा में होता है। इनका मूल उद्देश्य यह बताना है कि बोलचाल की भाषा (शब्द) किस तरह चेतना की गहराइयों से उत्पन्न होकर भौतिक रूप लेती है।
परा वाणी (Para Vāk)
अर्थ: परा = सर्वोच्च, अतीन्द्रिय, परम।
यह वाणी का अवर्णनीय, अदृश्य और अचिन्त्य रूप है।
यह शब्द का बीज है — शब्द ब्रह्म, चेतना का मूल कम्पन।
यह शुद्ध इच्छा और भाव के रूप में हृदय में स्थित होती है — ब्रह्मरंध्र या मूलाधार तक भी कहा जाता है।
यह केवल ऋषियों या गहरे साधकों के ध्यान में प्रकट होती है।
"परा वाणी सृष्टि की प्रथम स्पंदना है — जहाँ शब्द और अर्थ अभी अविभक्त हैं।"
पश्यंती वाणी (Paśyantī Vāk)
अर्थ: पश्यति = देखती है; यह वाणी का दृश्य रूप है, जहाँ शब्द अभी तक बोले नहीं गए, पर चेतना में चित्रवत प्रकट होते हैं।
यह अंतरदृष्टि या संकल्पना की अवस्था है।
यहाँ शब्द और अर्थ में अभी भी एकता है — शब्द-शक्ति।
ह्रदय क्षेत्र में मानी जाती है।
यह वह स्तर है जहाँ कवि, ऋषि, कलाकार अपनी प्रेरणा या दृष्टि प्राप्त करते हैं।
"कविता के पहले दृश्य बनता है — वह पश्यंती है।"
मध्यमा वाणी (Madhyamā Vāk)
अर्थ: मध्यमा = मध्य स्थिति।
यह शब्द का मानसिक स्तर है — सोचने और वाक्य रचने की प्रक्रिया।
यहाँ शब्द मन में गूँजते हैं — बोले नहीं जाते।
यह कण्ठ या हृदय-से-गले के बीच की स्थिति से जुड़ी है।
संकल्प स्पष्ट होता है, पर उच्चारण नहीं।
"हम जब बोलने से पहले मन में वाक्य बनाते हैं — वह मध्यमा है।"
वैखरी वाणी (Vaikharī Vāk)
अर्थ: विखरती हुई — वह वाणी जो ध्वनि बनकर बाहर आती है।
यही बोलचाल की भाषा, भाषण, लेखन आदि है।
यह जीभ, होंठ, कंठ और वायु के सहयोग से उत्पन्न होती है।
सबसे स्थूल, सबसे सुगम, पर चेतना से सबसे दूर।
"जो शब्द हम सुनते हैं, बोलते हैं, पढ़ते हैं — वे वैखरी हैं।"
चारों वाणियों का संबंध (एक उदाहरण):
कल्पना कीजिए आप एक कविता लिखते हैं:
परा: आप में एक रहस्यपूर्ण मौन भाव पैदा होता है — बिना शब्द के।
पश्यंती: एक चित्र, बिंब या गहरी अनुभूति आपके भीतर स्पष्ट होती है — शब्दहीन, पर भाव-युक्त। Is
मध्यमा: आप उसे शब्दों में सोचने लगते हैं — “शायद मैं यूँ लिख सकता हूँ...”
वैखरी: आप वह कविता बोलते या लिखते हैं — दूसरों तक पहुँचा देते हैं।
ये चारों वाणियाँ वाचक और वाच्य (शब्द और अर्थ) के बीच की यात्रा को दर्शाती हैं।
भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।
शब्द=शक्ति=शिव — यह दृष्टिकोण कश्मीर शैव मत में मिलता है।
वाणी एक चेतन प्रक्रिया है — केवल ध्वनि नहीं, बल्कि शब्द के पीछे की सत्ता, दृष्टि, और मौन की गहराई।
"वाणी शब्द मात्र नहीं, वह चेतना की नदी है जो परम मौन से बहती हुई ध्वनि तक आती है।"
हम केवल वैखरी वाक् में प्रस्तुत ज्ञान के रूप को वेद कहने की भूल करते हैं।
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