'क्यों' का अधूरापन: गोडेल सिद्धांत की एक दार्शनिक प्रतिध्वनि
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मनुष्य का मस्तिष्क निरंतर प्रश्न पूछने की स्वाभाविक प्रवृत्ति रखता है। इन प्रश्नों की धारा में सबसे मूलभूत और बार-बार लौटने वाला प्रश्न है: "क्यों?" — यह केवल एक शब्द नहीं, बल्कि कारण, उद्देश्य और तात्पर्य की तलाश का संकेतक है। हम किसी भी अनुभव, घटना या सृष्टि के रहस्य के सामने खड़े होकर पूछते हैं: यह क्यों हुआ? यह क्यों है? और फिर उस उत्तर से संतुष्ट हुए बिना, उससे भी आगे पूछते हैं — वह उत्तर क्यों है?
यह 'क्यों' की श्रृंखला, दर्शन में अनादि रिग्रेशन (infinite regression) की तरह होती है। हर उत्तर एक नए प्रश्न को जन्म देता है। यह प्रक्रिया या तो अंतहीन चलती है, या किसी बिंदु पर आकर रुक जाती है — जहाँ उत्तर होता है: "ऐसा इसलिए है क्योंकि यह इसकी प्रकृति है।" यानी एक ऐसा उत्तर जो अब कारण नहीं बताता, केवल व्यवहार या तथ्य को निरूपित करता है। इस बिंदु पर 'क्यों' मौन हो जाता है, और 'कैसे' (how) या 'क्या' (what) बोलने लगते हैं।
यहाँ हम गोडेल के प्रसिद्ध इनकम्प्लीटनेस सिद्धांत की स्मृति में पहुँचते हैं। गोडेल ने 1931 में यह दिखाया कि किसी भी संगत और पर्याप्त रूप से शक्तिशाली औपचारिक प्रणाली में ऐसे कथन अवश्य होंगे जो उस प्रणाली के भीतर सत्य तो होंगे, पर सिद्ध नहीं किए जा सकते। सरल शब्दों में कहें तो कोई भी तर्क-तंत्र आत्मनिर्भर नहीं हो सकता — उसे पूर्णता के लिए बाह्य मान्यताओं (meta-axioms) की आवश्यकता होगी।
यह स्थिति हूबहू 'क्यों' की श्रृंखला पर लागू होती है। जब हम हर उत्तर के पीछे नया कारण तलाशते हैं, तो हम एक अंतहीन श्रृंखला में फँस जाते हैं। लेकिन जैसे कोई गणितीय प्रणाली अपने हर सत्य को सिद्ध नहीं कर सकती, वैसे ही 'क्यों' की प्रणाली अपने हर प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकती। अंततः हमें एक ऐसा कथन स्वीकार करना पड़ता है जिसे हम सिद्ध नहीं कर सकते, केवल मान सकते हैं: "यह इसकी प्रकृति है", "यही उसका ढंग है", "यह इस प्रकार कार्य करता है।"
तंत्र की प्रकृति गणितीय/तार्किक तंत्र कारणात्मक/तात्त्विक तंत्र
सीमा: कुछ सत्य सिद्ध नहीं किए जा सकते, कुछ कारण बताए नहीं जा सकते।
समाधान: बाह्य मान्यताओं का प्रयोग 'कैसे' या 'क्या' पर रुक जाना।
अंतिम निष्कर्ष प्रणाली अधूरी (Incomplete) है उत्तर अधूरे हैं या अंतिम नहीं हैं।
यह विचार केवल गणित या दर्शन तक सीमित नहीं है। यह मानव अस्तित्व, विज्ञान, धर्म और भाषा — सभी में लागू होता है।
विज्ञान अंततः कहता है: ये मूलभूत नियम हैं — क्यों हैं, नहीं पता।
धर्म कहता है: यह ईश्वर की इच्छा है — पर वह इच्छा क्यों है, नहीं बताया जा सकता।
दर्शन कहता है: यह सत्ता की स्वरूपगत विशेषता है — पर वह स्वरूप क्या है, वह भी अतीन्द्रिय रह जाता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 'क्यों' का पीछा करना एक बौद्धिक यात्रा है — पर इसकी मंज़िल किसी अंतिम कारण में नहीं, बल्कि उस सीमा की स्वीकृति में है जहाँ प्रश्न मौन हो जाते हैं। गोडेल का गणितीय सूत्र केवल गणित नहीं, बल्कि मानव चेतना की सीमा का संकेत भी बन जाता है।
निष्कर्षतः, 'क्यों' की श्रृंखला और गोडेल का सिद्धांत दोनों हमें एक ही गहरी बात सिखाते हैं:
कोई भी आत्म-निहित तंत्र पूर्ण नहीं हो सकता — न गणित में, न अस्तित्व में, न ज्ञान में।
और यही अधूरापन — यही 'incompleteness' — हमें विनम्रता भी सिखाता है, और खोज की निरंतरता का आधार भी बनता है।
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