राम और कृष्ण: नैतिकता के दो रूप, ईश्वरत्व के दो प्रतिमान
(एक समग्र नैतिक-दार्शनिक विवेचन)
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राम और कृष्ण—दोनों विष्णु के अवतार माने जाते हैं, किंतु उनका आचरण, उनकी निर्णय-प्रणाली, और उनका नायकत्व एक-दूसरे से भिन्न ही नहीं, कई बार तो एक-दूसरे के विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। एक ओर राम हैं—मर्यादा के मूर्त्तरूप, वचन के लिए सब कुछ छोड़ देने वाले, भावनाओं पर नियंत्रण रखने वाले, नैतिक आचरण के प्रतीक। दूसरी ओर हैं कृष्ण—नीति के चतुर खिलाड़ी, न्याय के लिए साधनों की मर्यादा तोड़ने वाले, प्रेम और छल दोनों को समान भाव से साधने वाले।
किन्तु यदि कृष्ण मर्यादा भंग करते हैं, तो फिर उन्हें राम से "उच्चतर" अवतार—पूर्णावतार, १६ कलाओं से युक्त—क्यों माना गया? यह प्रश्न केवल धार्मिक नहीं, नैतिक और दार्शनिक भी है। इस निबंध में हम इस प्रश्न का उत्तर खोजेंगे, विभिन्न नैतिक सिद्धांतों के आलोक में—वर्च्यू थियरी, कॉनसीक्वेन्शियलिज़्म, डीओन्टोलॉजी, और समकालीन नैतिक विश्लेषण के माध्यम से।
* वर्च्यू थियरी और राम का आदर्श:
वर्च्यू थियरी (virtue ethics), जो अरस्तू से आरंभ होकर आज तक नैतिक दर्शन में गहराई से चर्चित है, यह कहती है कि नैतिकता किसी कार्य की परिणति या नियम के पालन से नहीं, बल्कि व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है। एक श्रेष्ठ मानव—एक आदर्श नायक—में किन गुणों की अपेक्षा की जाती है? साहस, संयम, सत्यनिष्ठा, दया, करुणा, वचनबद्धता, आत्मसंयम, लोकलज्जा, कर्तव्यपरायणता। राम इन सभी गुणों का सजीव मूर्त्ति हैं।
राम की प्रत्येक क्रिया—चाहे वह सीता के लिए युद्ध करना हो, या सीता का परित्याग; लक्ष्मण का त्याग हो, या पिता की आज्ञा के लिए सिंहासन का परित्याग—सब इन्हीं गुणों के अधीन होती हैं। वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, क्योंकि उनके लिए ‘पुरुष’ की चरम मर्यादा ही ईश्वरत्व है।
उनकी नैतिकता अडिग है, यद्यपि त्रासद है—कभी-कभी अमानवीय सी प्रतीत होती है। वह अपने हृदय की पीड़ा को भी ‘नीति’ और ‘मर्यादा’ की वेदी पर अर्पित कर देते हैं। राम वर्च्यू थियरी के सबसे कठिन मानकों पर भी पूरे उतरते हैं।
* कॉनसीक्वेन्शियलिज़्म और कृष्ण का न्यायबोध:
यदि राम वर्च्यू का शिखर हैं, तो कृष्ण उसका अतिक्रमण हैं। कृष्ण के लिए कोई एक गुण परम नहीं है—बल्कि परिणाम और उसके पीछे छिपे धर्म का संपूर्ण आकलन ही नैतिकता का मानदंड है। यह consequentialism की मूल भावना है: कार्य का मूल्य उसके परिणाम से आँका जाता है।
कृष्ण को देखें—वह नीति तोड़ते हैं, झूठ का सहारा लेते हैं, छल करते हैं। किंतु इन सबका उद्देश्य है—धर्म की रक्षा, अन्याय का अंत, समाज का कल्याण। भीष्म की प्रतिज्ञा अगर अराजकता को जन्म दे रही है, तो वह उसकी मर्यादा तोड़ते हैं। द्रोण का जीवन अगर संहार का कारण है, तो उसका अंत करने हेतु युधिष्ठिर से झूठ कहलवाते हैं। धर्म के लिए अधर्म का प्रयोग करने में उन्हें संकोच नहीं।
यहाँ कृष्ण गांधी के उस कथन से मेल खाते हैं—"अधर्म के विरुद्ध धर्म की रक्षा के लिए यदि असत्य आवश्यक हो, तो वह भी सत्य है।"
कृष्ण को समझने के लिए ‘कर्मफल’ और ‘सामूहिक धर्म’ के विचार को समझना होगा। उनके लिए व्यक्तिगत वचन या प्रतिज्ञा नहीं, समष्टि की स्थिरता ही नैतिकता का आधार है। वे युद्धभूमि के रणनीतिकार हैं, नैतिकता के नहीं—बल्कि धर्म के कुशल शिल्पकार हैं।
* डीओन्टोलॉजिकल दृष्टिकोण: कर्तव्य के बनाम परिणाम
इमैनुएल कांट के डीओन्टोलॉजिकल सिद्धांत के अनुसार नैतिकता इस पर निर्भर करती है कि कार्य किस कर्तव्यबोध से किया गया है, न कि उसके परिणाम से। इस दृष्टिकोण से राम अत्यंत नैतिक प्रतीत होते हैं—क्योंकि उनका प्रत्येक कार्य कर्तव्य और नियम के पालन में है, परिणाम चाहे जो हो।
कृष्ण की नीति इस कसौटी पर संदिग्ध बनती है, क्योंकि वे परिणामोन्मुख निर्णय लेते हैं। वे नियमों को लांघते हैं, कर्तव्यों को परिस्थितियों के अनुरूप ढालते हैं। कांट के लिए यह 'मोरल' नहीं होगा। लेकिन यही तो कृष्ण की 'लीला' है—मानव नियमों की सीमाओं को पार कर धर्म की एक व्यापक परिभाषा प्रस्तुत करना।
* समकालीन नैतिकता: संदर्भ, बहुलता, और दुविधा
आधुनिक नैतिक विश्लेषण एक और विचार देता है: संदर्भ-सापेक्ष नैतिकता (contextual ethics)। यह मानता है कि हर परिस्थिति की अपनी नैतिक कसौटी होती है। एक ही कार्य, एक संदर्भ में नैतिक हो सकता है और दूसरे में अमानवीय।
राम का नैतिकता-बोध 'स्थायी' है—चाहे परिणाम कितना भी विनाशकारी हो। कृष्ण की नैतिकता 'प्रासंगिक' है—चाहे साधन कितने भी संदिग्ध हों। आज की जटिल दुनिया में, जहाँ नैतिक निर्णय बहुपरिस्थितिगत होते हैं, कृष्ण अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं, जबकि राम अधिक आदर्श।
* अवतारत्व की पूर्णता: १२ कलाएँ बनाम १६ कलाएँ
अब मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं: राम को १२ कलाओं वाला और कृष्ण को १६ कलाओं वाला पूर्णावतार क्यों माना गया?
इसका उत्तर इस विचार में छिपा है: राम मानव नैतिकता के शिखर हैं—'पुरुषोत्तम'। लेकिन कृष्ण ‘लीलावतार’ हैं—ऐसा अवतार जो धर्म को नए सिरे से परिभाषित करता है, न कि केवल उसका पालन करता है। राम 'नियम' हैं, कृष्ण 'स्वाभाविकता'। राम 'आदर्श' हैं, कृष्ण 'पूर्णता'।
पूर्णता का अर्थ है—सृजन, संहार, धैर्य, क्रोध, प्रेम, माया, नीति, छल, करुणा—सबका समुच्चय। कृष्ण में सभी भाव, सभी क्षमताएँ, सभी परिप्रेक्ष्य समाहित हैं। वे केवल नीति या धर्म के प्रतिनिधि नहीं—वे स्वयं धर्म हैं, जैसा उन्होंने गीता में कहा: "धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।"
सब कुछ मिला-जुला कर देखें तो राम और कृष्ण दो विरोधी नहीं, दो आवश्यक ध्रुव हैं। एक मर्यादा का ब्रह्मास्त्र है, तो दूसरा धर्म का चक्रव्यूह। एक जीवन को नियम से सुरक्षित रखता है, दूसरा जीवन की जटिलताओं में धर्म की खोज करता है।
राम हमें मर्यादा सिखाते हैं, कृष्ण हमें धर्म की जटिलता। राम आचरण हैं, कृष्ण दृष्टि। राम हमें अनुशासन सिखाते हैं, कृष्ण हमें विवेक।
राम की नैतिकता ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ है। कृष्ण की नैतिकता—‘यदि धर्म की रक्षा के लिए वचन टूटता है, तो टूटे’।
और शायद इसी वजह से कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा गया—क्योंकि वे मानव नैतिकता की सीमाओं को पार करके अखंड धर्म की ओर संकेत करते हैं।
* आधुनिक नैतिक संकटों में राम और कृष्ण: आदर्श और व्यावहारिक धर्म की द्वंद्वकथा
समाज जितना जटिल होता जाता है, नैतिक निर्णय उतने ही कठिन होते जाते हैं। आज की दुनिया में, जहाँ राजनीतिक निर्णयों में नैतिकता और कूटनीति टकराते हैं, व्यक्तिगत जीवन में प्रेम, करियर, और परिवार के बीच संतुलन बनाना मुश्किल होता है, और व्यवसायिक जीवन में लाभ और मूल्य के बीच निरंतर संघर्ष चलता है—वहाँ राम और कृष्ण की नैतिक दृष्टियाँ हमारे सामने दो अलग तरह के नैतिक उपकरण प्रस्तुत करती हैं।
1. नीति और आदर्श के द्वंद्व में राम:
मान लीजिए कोई सरकारी अधिकारी यह पाता है कि नियम के अनुसार उसे एक ज़रूरतमंद परिवार को कोई राहत नहीं देनी चाहिए, क्योंकि उनके कागज़ पूरे नहीं हैं। किंतु वह जानता है कि यह परिवार वास्तव में पीड़ित है और नियम का पालन उनका हक़ छीन लेगा।
यदि वह राम की मर्यादा दृष्टि से सोचता है, तो वह नियम का पालन करेगा, क्योंकि व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखना ही उसका धर्म है। वह यह सोच सकता है कि यदि वह नियम तोड़ेगा, तो एक व्यवस्था विघटित होगी, जो आगे चलकर औरों के लिए अन्याय का कारण बन सकती है।
2. उद्देश्य और परिणाम की दृष्टि से कृष्ण:
वहीं, यदि वह कृष्ण की दृष्टि से सोचता है, तो वह यह देखेगा कि उस परिवार की रक्षा करना ‘धर्म’ है, और व्यवस्था के भीतर रहकर न्याय न हो तो व्यवस्था को लचीला बनाना धर्म का विस्तार है। हो सकता है वह कोई वैकल्पिक रास्ता खोजे—या व्यवस्था को मोड़कर भी राहत दे। वह यह भी कह सकता है: "यदि मेरा झूठ, मेरी नीति की अनदेखी किसी असहाय की रक्षा करती है, तो वही मेरा धर्म है।"
3. पारिवारिक जीवन में: त्याग बनाम संतुलन
राम की नैतिकता हमें सिखाती है कि व्यक्ति के अपने भाव, इच्छाएँ, और सुख—even प्रेम—कर्तव्य के आगे गौण हैं। यह विचार आज के उन युवाओं को आकर्षित करता है जो माता-पिता, सामाजिक उत्तरदायित्व या राष्ट्रसेवा के लिए अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग करना चाहते हैं।
लेकिन आज का समाज उतना एकरेखीय नहीं रहा। यदि किसी स्त्री या पुरुष को यह लगने लगे कि परिवार का त्याग कर वह अपने ‘कर्तव्य’ के पीछे दौड़ रहा है, तो यह राम जैसा त्याग हो सकता है—पर आज का मन यह भी पूछता है: क्या इस त्याग से किसी और को दुःख तो नहीं हो रहा? क्या सीता की पीड़ा केवल राम की मर्यादा की पूर्ति के लिए अनदेखी की जा सकती है?
कृष्ण की दृष्टि यहाँ अधिक लचीली प्रतीत होती है। वे कहते हैं—धर्म वह नहीं जो केवल मेरे लिए सही हो, बल्कि वह जो सभी के लिए न्यायसंगत हो। वे परिस्थितियों की गहराई में जाकर, हर पात्र के संदर्भ में संतुलन स्थापित करते हैं।
4. राजनीति और नेतृत्व में: सिद्धांत बनाम परिणाम
आज के नेताओं के समक्ष भी यही दुविधा है—क्या वे आदर्शों की लकीर पीटते रहें, चाहे समाज विघटित होता जाए (राम की दृष्टि)? या फिर वे व्यावहारिक निर्णय लें—even सामयिक अनैतिकता को गले लगाकर—अगर वह दीर्घकालिक न्याय की ओर ले जाए (कृष्ण की दृष्टि)?
राम की नैतिकता नीति की स्थिरता का प्रतीक है। वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े एक आदर्श अधिकारी की तरह हैं—जो नियमों को कभी नहीं तोड़ता, भले ही उससे कुछ असुविधा हो।
कृष्ण की नैतिकता नीति की लचीलापन का प्रतिनिधित्व करती है—वह उस कूटनीतिज्ञ की तरह हैं, जो जानते हैं कि अंतिम लक्ष्य यदि धर्म है, तो साधनों में चातुर्य की अनुमति होनी चाहिए।
5. न्याय प्रणाली में: टेक्निकल बनाम इंसाफ़पूर्ण निर्णय
न्यायालयों में भी आज यही संकट है—क्या न्याय केवल उस प्रमाण और नियम से होगा जो कागज़ों में है (राम की दृष्टि)? या वह उस सच्चाई को देखेगा जो प्रक्रिया से परे है (कृष्ण की दृष्टि)? भारत में कई ऐसे मामलों में न्यायाधीशों ने ‘कानूनी मर्यादा’ और ‘प्राकृतिक न्याय’ के बीच संघर्ष को स्वीकार किया है।
* समन्वय की आवश्यकता
राम और कृष्ण की नैतिक दृष्टियाँ विरोधी नहीं, पूरक हैं। एक ओर, राम हमें मूल्यों की कठोर रेखा खींचना सिखाते हैं, जो अराजकता से सुरक्षा देती है। दूसरी ओर, कृष्ण हमें वह लचीलापन सिखाते हैं जिससे ये मूल्य मनुष्यता की सेवा कर सकें।
आधुनिक नैतिकता के संकट में हमें इन दोनों दृष्टियों का समन्वय चाहिए। नियमों की मर्यादा और संदर्भ की समझ—दोनों को एक साथ साधना ही आज के धर्म का स्वरूप है।
राम हमें चरित्र देते हैं, कृष्ण हमें दृष्टि देते हैं। आधुनिक नैतिकता को इन दोनों की ज़रूरत है—एक अनुग्रह से भरी मर्यादा, और एक विवेक से सुसज्जित चातुर्य।
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