तर्कातीत की ओर
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कुछ मौलिक और गंभीर बातें।
1. क्या तर्क निस्सीम है?
उत्तर: आंशिक रूप से हाँ और आंशिक रूप से नहीं।
तर्क का औपचारिक स्वरूप (formal logic) सीमित है — वह केवल उन्हीं निष्कर्षों तक पहुँच सकता है जो उसकी प्रारंभिक परिभाषाओं और नियमों से निकाले जा सकते हैं।
लेकिन तर्क की प्रक्रिया, यानी विचार करना, नए प्रमेय गढ़ना, नियमों की रचना करना, यह सैद्धांतिक रूप से अनंत हो सकती है।
जैसे ही हम एक तर्क प्रणाली (logical system) बनाते हैं, हम एक और उच्चतर प्रणाली की कल्पना कर सकते हैं जो इसे व्याख्यायित करे।
इसलिए:
तर्क “ख़ुद को अतिक्रमित करता है।” वह अनंत की दिशा में गतिशील है, लेकिन कभी पूर्णतः निस्सीम नहीं हो सकता — क्योंकि वह संरचना में सीमित है।
2. क्या तर्क से बाहर कुछ नहीं है?
उत्तर: नहीं, तर्क से बाहर भी बहुत कुछ है।
A. गोडेल की अपूर्णता प्रमेय (Kurt Godel’s Incompleteness):
गोडेल ने दिखाया कि कोई भी पर्याप्त शक्तिशाली औपचारिक प्रणाली (जैसे गणित) अपने सभी सत्य को स्वयं सिद्ध नहीं कर सकती।
इसका सीधा तात्पर्य यह है:
तर्क की कोई भी पूर्णतः बंद व्यवस्था (closed system) तर्कातीत सत्य को उत्पन्न किए बिना नहीं रह सकती।
B. वह जो तर्क में नहीं आता:
अनुभूति (qualia)
चेतना का अस्तित्व
प्रथम-सत्य (प्राइमल ट्रुथ)
अनिर्वचनीय (ineffable) अनुभव
आत्मा/ब्रह्म की अनुभूति
अनभिज्ञता की सीमा (epistemic horizon)
इन सबका तर्क द्वारा संपूर्ण वर्णन संभव नहीं है। तर्क उनका संकेत कर सकता है, परंतु अभिव्यक्त या समाहित नहीं कर सकता।
3. गोडेल के प्रमेयों को क्रमशः बड़े सिस्टमों पर आरोपित करने से क्या होता है?
उत्तर: जैसे ही हम किसी प्रणाली को पूरा बनाने का प्रयास करते हैं, उसे संसक्त (consistent) रखने के लिए हम उस प्रणाली से बाहर एक और प्रणाली का निर्माण करते हैं।
यह प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती।
इसे कहते हैं: Meta-System Transcendence.
परिणाम:
"तर्कातीत होना तर्क की स्वाभाविक परिणति है।"
हम जितना तर्क को विस्तार देंगे, वह उतना ही अपने बाहर को संकेत करता जाएगा।
4. तर्कातीत (Trans-Rational) का महत्व:
भारतीय दर्शन में, विशेषतः उपनिषदों, अद्वैत वेदांत, और योगदर्शन में यह बोध बार-बार आता है:
"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" — जहाँ वाणी और मन नहीं पहुँच सकते।
"नेति नेति" — तर्क के हर निषेध के बाद भी जो बचा रहता है।
अर्थात्:
तर्क की सीमा का बोध ही ज्ञान का द्वार खोलता है।
अतः
तर्क गतिशील है, वह बढ़ता है, परंतु हर नई प्रणाली अपने सत्य को पूरा नहीं कर सकती।
तर्क से बाहर भी सत्य हैं। तर्क स्वयं उनका अनुमान करता है।
गोडेल की अपूर्णता और भारतीय तात्त्विक चिन्तन एक स्वर में कहते हैं —
"तर्क को तजना नहीं, किन्तु अंतिम सत्य उससे परे है।"
विचार का अंतिम विकास “तर्कातीत-बोध” (Trans-rational Realization) की ओर होता है। यह न अंध-आस्था है, न अप्रमाणित भ्रम — यह तर्क की अंतिम फलश्रुति है।
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