भारत एक महाशक्ति? - यथार्थ और विरोधाभास का विश्लेषण
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आज भारत को वैश्विक मंच पर एक उभरती महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सरकारी वक्तव्यों, मीडिया अभियानों और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि एक आत्मनिर्भर, तकनीकी रूप से सक्षम, आर्थिक रूप से प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में बनाई जा रही है। किंतु जब हम ज़मीनी यथार्थ की ओर देखते हैं, तो यह दावा एक गहरे विरोधाभास का शिकार प्रतीत होता है। इस लेख का उद्देश्य इसी विरोधाभास की तह तक जाना है: क्या भारत सचमुच चीन का प्रतिस्पर्धी और एक वैश्विक शक्ति बनने की राह पर है, या यह केवल एक राजनीतिक कल्पना है?
* औद्योगिक क्षरण और उत्पादकता संकट
भारत का औद्योगिक क्षेत्र—विशेषतः लघु और मध्यम उद्योग—पिछले एक दशक में निरंतर संकट से जूझ रहा है। श्रमिकों की संख्या में गिरावट, उत्पादन लागत में वृद्धि, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और घरेलू नीति अस्थिरता ने उद्योगों को या तो बंद होने के लिए मजबूर किया है या असंगठित क्षेत्र की ओर धकेला है। इसके विपरीत, चीन ने अपने उत्पादन तंत्र को न केवल संगठित रखा है, बल्कि उसे तकनीकी रूप से उन्नत भी किया है। भारत में 'मेक इन इंडिया' जैसी योजनाएँ प्रतीकात्मक प्रचार से आगे नहीं बढ़ पाईं।
* शिक्षा का वास्तविक संकट
शिक्षा का उद्देश्य केवल साक्षरता नहीं, बल्कि सोचने, समझने, और नवाचार करने की क्षमता विकसित करना है। भारत में विद्यालय और महाविद्यालय शिक्षा को एक परीक्षा-प्रधान और अंकों पर केंद्रित प्रणाली में परिवर्तित कर चुके हैं। परिणामस्वरूप, लाखों स्नातक हर वर्ष निकलते हैं जो न तो कौशलयुक्त होते हैं, न ही उत्पादन-योग्य। यह "Literate Unemployment" (साक्षर बेरोज़गारी, न कि शिक्षित बेरोज़गारी, educated unemployment) भारत की सबसे बड़ी सामाजिक और आर्थिक त्रासदी बनती जा रही है।
* बेरोज़गारी और जनसंख्या
भारत की कार्यशील जनसंख्या (working-age population) विशाल है, परन्तु उसके लिए न रोजगार हैं, न पर्याप्त प्रशिक्षण। रोजगार-सृजन की नीतियाँ या तो रियल एस्टेट, स्टॉक मार्केट, और सेवा क्षेत्र में फंसी रहती हैं, या केवल सरकारी घोषणाओं तक सीमित होती हैं। शुद्ध विदेशी विनियोग या निवेश की नजर से देखें तो Foreign Direct Investment FDI: $26.5 बिलियन (लगभग 37.5%), Foreign Portfolio Investment FPI: $44.1 बिलियन (लगभग 62.5%), जो दर्शाता है कि वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत में विदेशी पूंजी निवेश का बड़ा हिस्सा सट्टा निवेश (FPI) के रूप में आया, जो अल्पकालिक और अस्थिर हो सकता है और जिससे उत्पादकता बढ़ने की संभावना कम ही या नहीं है।
जहां कि चीन ने अपनी श्रमशक्ति को संगठित उद्योगों में लगाया, वहीं भारत की शक्ति असंगठित मजदूरी और 'गिग इकोनॉमी' में बंट कर बिखर रही है। गिग इकोनॉमी (Gig Economy) से हमारा तात्पर्य उस अर्थव्यवस्था से हैं जहाँ लोग स्थायी नौकरियों के बजाय अस्थायी, लघु अवधि, या स्वतंत्र अनुबंध (freelance) कार्य करते हैं। इसमें काम करने वाले को 'गिग वर्कर' कहा जाता है और उसे नियमित वेतन, भत्ते या नौकरी की सुरक्षा नहीं मिलती। उदाहरण के लिए Zomato, Swiggy, Uber, Ola के ड्राइवर या डिलीवरी एजेंट, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जुड़े स्वतंत्र लेखक, डिज़ाइनर, कोडर, पार्ट-टाइम ट्यूटर या कंटेंट क्रिएटर, आदि।
* राजनीति की दिशा: विकास या वोट?
भारतीय राजनीति का केंद्रीकरण अब जन-नीति से हटकर जन-भावनाओं और पहचान की राजनीति में हो गया है। जाति, धर्म, भाषा, और विगत गौरव की स्मृतियाँ वास्तविक आर्थिक सुधारों पर हावी हो चुकी हैं। जाति-गणना जैसे मुद्दे अब समाज को बांटने और वोट के ध्रुवीकरण के औजार बन चुके हैं, न कि समावेशी विकास के आधार। जब तक राजनीति केवल चुनावी विजय का साधन बनी रहेगी, दीर्घकालिक राष्ट्रीय नीतियाँ कभी साकार नहीं हो सकेंगी।
* रेंट-सीकिंग तंत्र और पूंजी का संचयन
भारत की अर्थव्यवस्था में वास्तविक उत्पादन से अधिक लाभ अब 'रेंट सीकिंग'—यानी सरकारी लाभ, ठेके, रियल एस्टेट, और लाइसेंसिंग आधारित लाभ—से कमाया जा रहा है। इससे न तो नवाचार होता है, न ही सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित होता है। चीन ने पूंजी को उत्पादन में लगाया, भारत में पूंजी सत्ता-समीपस्थ वर्गों के हाथों में केंद्रित होती गई।
* प्रतीकवाद बनाम यथार्थ
चंद्रयान, डिजिटल इंडिया, जी-20, बुलेट ट्रेन—ये सभी ऐसे प्रतीक हैं जो भारत की वैश्विक छवि को चमकाते हैं, पर आम नागरिक की जीवन-स्थितियों पर उनका प्रभाव न्यूनतम है। बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य, शिक्षा, और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में सुधारों के बिना, ये प्रतीक केवल 'विकास की कल्पना' भर हैं।
* विदेश नीति और कूटनीति का भ्रम
भारत का यह सोचना कि मात्र विदेश नीति और कूटनीति से, या विदेशी पूंजी को भारत में सब्जबाग दिखलाने से, सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी, यह भ्रम है। दुनिया के सारे सशक्त देश कूटनीति और राजनीति में भारत से आगे हैं, पीछे नहीं। सच्ची ताकत आंतरिक संरचनात्मक सुधारों, जनशक्ति के उत्पादक उपयोग और सामाजिक समरसता से आती है—not from image management.
भारत की विदेश नीति में एक ग़लतफ़हमी यह भी है कि वह स्वयं को वैश्विक दक्षिण (Global South) का स्वाभाविक नेता मानता है, जबकि अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के अनेक देश भारत की तुलना में अधिक सतत विकास और सामाजिक समरसता की दिशा में अग्रसर हैं। भारत का कूटनीतिक दायरा अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेषों और पश्चिमी स्वीकृति की आकांक्षा से बंधा हुआ है। इसके कारण वह चीन की तरह स्वतंत्र रणनीतिक भूमिका निभाने में अक्षम रहा है। वैश्विक शक्ति संतुलन में प्रभावी भागीदारी केवल भाषणों और सम्मेलनों से नहीं होती—उसके लिए स्वावलंबी उत्पादन, तकनीकी प्रभुत्व और आंतरिक एकता आवश्यक होती है।
* सम्भावना बनाम वास्तविकता
भारत के पास विशाल मानव संसाधन, युवा जनसंख्या, तकनीकी क्षमताएँ और सांस्कृतिक ऊर्जा जैसी शक्तियाँ हैं। परंतु जब तक ये शक्तियाँ एक समन्वित, न्यायसंगत और उत्पादक दिशा में नहीं लगतीं, तब तक महाशक्ति बनने की बात केवल आत्मवंचना रह जाएगी। चीन का प्रतिस्पर्धी बनने के लिए भारत को केवल नीतिगत परिवर्तन नहीं, बल्कि मानसिकता, प्रशासनिक दक्षता और सामाजिक न्याय के स्तर पर क्रांति की आवश्यकता है।
महाशक्ति बनने का सपना तभी सार्थक होगा जब वह आम नागरिक के जीवन में यथार्थ रूप से परिलक्षित हो—not in the speeches, but in the streets.
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(Personal Note: मेरे विचार में अर्थशास्त्र एकमात्र विषय है जो वैज्ञानिकता के पाखंड में अग्रणी है किंतु भीतर से मतवाद, ideology, और ठगी का पुजारी है। वास्तविकता को छिपाकर अपने नकली सामान को बेचने में इसे महारत हासिल है। इसलिए इस लेख को सीरियसली नहीं लेंगे। यही मेरा व्यक्तिगत अनुरोध है।)
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