बुधवार, 21 मई 2025

उत्कर्षाकांक्षा, कुंठा, भ्रांत आकांक्षा और दिशाहीन उत्कर्ष की त्रासदी

उत्कर्षाकांक्षा, कुंठा, भ्रांत आकांक्षा और दिशाहीन उत्कर्ष की त्रासदी

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David McClelland ने अपनी किताब The Achieving Society में सारांशत: यह दिखाया है कि जिस समाज में Need for Achievement (उत्कर्षाकांक्षा, उपलब्धि की कामना) सबल नहीं होती उसका विकास बाधित होता है। मैंने गांव में लंबी अवधि तक रह कर, समाज में लोगों से घुल-मिल कर देखा कि उसमें नीड़ फॉर अचीवमेंट कैसे बाधित है और उसकी जगह कुंठा किस तरह सामाजिक स्तर पर व्याप्त है। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि मैं इसपर सोचूं, लिखूं और दूसरों का ध्यान इस ओर आकर्षित करूं। यह लेखन उसी दिशा में है। किंतु इसका आलोच्य विषय, जिसे मैंने अनुभव किया है, वह उपलब्धि की कामना का अभाव,  उससे भी अधिक इसकी विकृति,  कुंठित होने का भाव, है। 


* उपलब्धि की कामना, उत्कर्षाकांक्षा, या अधूरी प्यास?


मनुष्य की आत्मा में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं — जीने की इच्छा, संबंध की आकांक्षा और स्वयं को सिद्ध करने की पुकार। इस अंतिम प्रवृत्ति को आधुनिक मनोविज्ञान में Need for Achievement कहा गया है — यह वह प्रेरणा है जो व्यक्ति को नवाचार, परिश्रम और उत्कृष्टता की ओर प्रेरित करती है।


लेकिन जब यह आवश्यकता अन्यायपूर्ण अवरोध, संस्कृति में संकोच, या सत्तात्मक पराजय-बोध से टकराती है, तो यह एक अंधी दौड़ या भ्रांत अभिलाषा बन जाती है — जहाँ व्यक्ति सफलता चाहता है, लेकिन न यह जानता है कि सफलता का अर्थ क्या है, न यह कि वह उसके लिए क्यों प्रयास कर रहा है।


यहीं से जन्म लेती है कुंठा — एक दबी हुई आग, जो न केवल स्वयं को जलाती है, बल्कि समाज की रचनात्मक क्षमता को भी राख करती है।


* कुंठा का मनो-दार्शनिक आधार


कुंठा केवल व्यक्तिगत विफलता नहीं है; यह एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संचित पीड़ा भी है। जब:


इच्छाओं को पाप कहा जाता है; 

त्याग को आत्मोन्नति का मार्ग बताया जाता है; व्यक्तित्व को कर्तव्य से दबा दिया जाता है; और सफलता को दूसरों की अनुमति से जोड़ा जाता है,


तो व्यक्ति के भीतर एक द्वैत पनपता है — वह उत्कर्ष चाहता है, पर आत्मग्लानि से ग्रसित होता है; वह साहस करना चाहता है, पर उसे यह सिखाया गया है कि अतिक्रमण अधर्म है।


इस द्वैत का अंतिम परिणाम होता है — भटकाव, ईर्ष्या, और सामूहिक अवरोध।


* भ्रांत उपलब्धि-कामना और दिशाहीन सफलता


आज का समाज "achieve" करने की चाह से भर गया है, लेकिन यह चाह न मूल्य से जुड़ी है, न सार्थकता से, न तो उसकी मौलिकता की खोज करती है, न अपने सन्दर्भ की समझ। फलस्वरूप व्यक्ति दूसरों की तुलना में जीतना चाहता है, न कि अपनी वास्तविक क्षमता में। वह ब्रांडेड सफलता को चुनता है — डॉक्टर, आईएएस, करोड़पति — बिना यह पूछे कि यह सफलता किससे संवाद करती है। वह दूसरों की निंदा कर स्वयं को ऊँचा महसूस करता है — यह सफलता की विकृति है, उसकी सार्थकता नहीं। यह भ्रांत आकांक्षा कुंठा का दूसरा चरण है — जहाँ व्यक्ति अपने ही भ्रम में उलझा समाज रचता है, जो एक-दूसरे की असफलता पर जीता है।


* कुंठा का सामाजिक प्रसार: छूत की बीमारी


जब एक पूरी पीढ़ी को अवसर नहीं मिलता, आत्मनिर्भर सोच नहीं मिलती, और संस्कृति उसे आत्मगौरव के बजाय आत्मदया सिखाती है, तब कुंठा एक सामूहिक भाव बन जाती है।


शोषित वर्ग आत्मग्लानि से भर जाता है, उच्च वर्ग असुरक्षा से पीड़ित होता है, मध्यवर्ग दूसरों की टांग खींचने में सुख पाता है, विकास अवरुद्ध होता है। क्योंकि प्रतिभाएँ पलायन करती हैं, नवीनता दब जाती है, और शिक्षा, राजनीति, धर्म — सबमें mediocrity और कटुता व्याप्त हो जाती है।


* भारत की विशेष पीड़ा: संस्कृति और सत्ता की संधि


भारत की कुंठा का इतिहास वर्णाधारित दमन से शुरू होता है, औपनिवेशिक आत्महीनता से गहराता है, और राजनीतिक अवसरवाद से पोषित होता है।


यहाँ "Need for Achievement" अक्सर दूसरे की स्वीकृति में घुल जाती है, विदेशी मानकों की नकल बन जाती है, या दूसरे की सफलता को नीचा दिखाने में परिणत होती है।


"मैं आगे बढ़ूं" का अर्थ बन जाता है — "तुम्हें पीछे धकेल दूं।"


* कुंठा से मुक्ति की राह — आत्म-परिभाषा और नैतिक पुनर्स्थापना


कुंठा का इलाज आकांक्षा को दबाना नहीं, बल्कि उसे नैतिक दिशा देना है। हमें "Need for Achievement" को पुनर्परिभाषित करना होगा। वह केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, एक अस्तित्वगत अन्वेषण हो। वह धन या पद से नहीं, अर्थ और उत्तरदायित्व से जुड़ी हो। वह अन्य के अपमान से नहीं, समूह की समृद्धि से संपन्न हो।


जब व्यक्ति स्वयं से यह पूछना शुरू करता है कि मैं यह क्यों चाहता हूँ? क्या यह सफलता मुझे मानव रूप में विकसित करेगी? क्या मेरी जीत किसी और की हार पर निर्भर है? तब कुंठा छंटने लगती है, और संभावना का प्रकाश उदय होता है।


लेकिन मैंने इस तरह की कोई योजना नहीं देखी है, कोई प्रोग्राम नहीं देखा है, कोई चेतना नहीं देखी है। शिक्षातंत्र इसमें दयनीय रूप से असमर्थ है। शिक्षा खुद कुंठा को बढ़ा रही है। आज के अनेक विद्यार्थी परीक्षा में 95+ प्रतिशत अंक पाने पर भी असंतुष्ट हैं। उपलब्धि अर्थहीन हो गयी हैं, फ्रस्ट्रेशन विद्यार्थी और उसके अभिभावकों के सर पर बैठ गया है। यह विकृति है। यह समाज की ज्वलंत समस्या है पर समाज का विचारक वर्ग इस समस्या पर उदासीन है।

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