आस्तिक होने का क्या अर्थ है?
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सामान्य धारणा: आस्तिक = ईश्वरवादी
आम बोलचाल में “आस्तिक” का अर्थ होता है:
"जो ईश्वर में विश्वास रखता है।"
और “नास्तिक” वह जो ईश्वर को नहीं मानता।
लेकिन यह परिभाषा भारतीय दर्शनशास्त्र में प्रासंगिक नहीं है।
भारतीय दर्शन में आस्तिकता की परिभाषा
भारतीय दर्शन में “आस्तिक” और “नास्तिक” शब्दों का तकनीकी अर्थ है:
जो वेदों की प्रामाण्यता को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है।
जो वेदों को प्रमाण नहीं मानता, वह नास्तिक है।
इस दृष्टि से:
सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, और वेदांत (उत्तर मीमांसा) = आस्तिक दर्शन
(हालाँकि इनमें से सभी ईश्वर को नहीं मानते)
बौद्ध, जैन, चार्वाक = नास्तिक दर्शन
(भले ही कुछ में आत्मा, मोक्ष जैसे तत्व हों)
* सांख्य दर्शन क्यों आस्तिक है जबकि ईश्वर को नहीं मानता?
सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति को मूल तत्व मानता है।
वह ईश्वर को स्वीकृत नहीं करता, क्योंकि मुक्ति के लिए केवल ज्ञान पर्याप्त है, न कि कृपा।
फिर भी वह वेदों की प्रमाणिकता स्वीकार करता है, इसलिए वह “आस्तिक” है।
यानी:
आस्तिकता की कसौटी “ईश्वर” नहीं, बल्कि “वेद” हैं।
* आस्तिकता का गहरा आयाम: 'अस्ति' की स्वीकृति
“आस्तिक” शब्द “अस्ति” (है) से बना है।
तो मूल रूप में “आस्तिक” वह है:
जो अस्तित्व को स्वीकारता है, और उसका संधान करता है।
इस दृष्टिकोण से:
आस्तिक होना केवल ईश्वर या वेद को मानना नहीं,
बल्कि अस्तित्व के प्रति एक सकारात्मक, जिज्ञासु और शोधशील दृष्टि रखना है।
* नास्तिकता की गरिमा भी समझें
भारतीय परंपरा में “नास्तिक” शब्द गाली नहीं था।
बुद्ध को “नास्तिक” कहा गया, पर उनका दर्शन गहरा, नैतिक और मुक्ति-केंद्रित है।
चार्वाक को नास्तिक कहा गया, पर उन्होंने इंद्रियानुभव और तर्क को प्रधानता दी।
नास्तिकता का अर्थ है:
वह जो वेद या पारंपरिक सिद्धांतों को प्रमाण नहीं मानता, पर अपने ढंग से सत्य की खोज करता है।
* आस्तिकता क्या है?
आस्तिकता का तीन-स्तरीय अर्थ समझा जा सकता है:
1. पारंपरिक अर्थ: वेदों की प्रमाणिकता में विश्वास
2. दार्शनिक अर्थ: अस्तित्व के मूलभूत सिद्धांतों की स्वीकृति
3. आध्यात्मिक अर्थ: अस्तित्व को सार्थक, संधानयोग्य और गहन मानना
तो प्रश्न की मूल भावना है:
“क्या ईश्वर को न मानने वाले भी आस्तिक हो सकते हैं?”
उत्तर है: हाँ, यदि वे अस्तित्व के प्रति गंभीर, वेद-आश्रित और मुक्ति-केंद्रित दृष्टिकोण रखते हैं।
साथ ही, यह भी आवश्यक है कि वे वेद को सारतः समझें। वेद वह संपूर्ण संरचना हैं, जिसमें ‘होने’ की गूंज ‘जानने’, ‘कहने’, और ‘साझा करने’ तक बहती है और अस्तित्व की अज्ञेयता की स्थिति में अनुभूतिजन्य मौन को स्वीकृति देती है। ध्यातव्य है कि मुक्ति का अर्थ है भ्रम से मुक्ति या दूसरे शब्दों में यथार्थ का ज्ञान या उसकी अनुभूति। इस परिभाषा के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व पर बुद्ध का मौन आस्तिक मौन था।
अब सोचें कि क्या कोई ईमानदार वैज्ञानिक नास्तिक हो सकता है?
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