सोमवार, 26 मई 2025

सत्य क्यों बोलें?: नैतिकता के सिद्धांतों, सामाजिक संरचना और विकासवादी तर्क का दार्शनिक विवेचन

 सत्य क्यों बोलें?:  नैतिकता के सिद्धांतों, सामाजिक संरचना और विकासवादी तर्क का दार्शनिक विवेचन

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"सत्य बोलना चाहिए" – यह वाक्य भारतीय नैतिक शिक्षा में इतनी सहजता से स्थापित है कि हम इसके औचित्य पर प्रश्न उठाने की आवश्यकता ही नहीं समझते। किंतु दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रश्न अत्यंत गहन है – आखिर क्यों सत्य बोलना नैतिक है? क्या यह केवल एक सामाजिक अनुशासन है, या कोई सार्वभौमिक मूल्य? इस लेख में हम विभिन्न नैतिक सिद्धांतों (theories of morality), उनके तात्त्विक आधार, और मानव सभ्यता के विकासक्रम में नैतिकता के जन्म एवं उद्देश्य पर विचार करेंगे।


* नैतिकता के प्रमुख सिद्धांत


नैतिकता को लेकर दर्शनशास्त्र में अनेक दृष्टिकोण विकसित हुए हैं:


(क) गुण-सिद्धांत (Virtue Ethics):

अरस्तू, कन्फ्यूशियस और भारतीय धर्म-शास्त्रों में यह दृष्टि प्रमुख है। इसके अनुसार नैतिकता व्यक्ति के चरित्र पर निर्भर है। सत्य बोलना इसलिए उचित है क्योंकि यह एक श्रेष्ठ गुण है – यह व्यक्ति की आत्मिक और सामाजिक गरिमा को पुष्ट करता है।


(ख) कर्तव्य-सिद्धांत (Deontological Ethics):

कांत (Emanuel Kant) जैसे विचारकों ने कहा कि कुछ नैतिक नियम अंतर्निहित हैं – जैसे सत्य बोलना। यह नियम परिस्थितियों से परे है; इसका पालन करना ही कर्तव्य है, चाहे परिणाम कुछ भी हो।


(ग) परिणामवादी सिद्धांत (Consequentialism / Utilitarianism):

बेंथम (Jeremy Bentham) और मिल (JS Mill) जैसे चिंतकों के अनुसार किसी कार्य की नैतिकता उसके परिणामों से तय होती है। यदि सत्य बोलने से समाज में विश्वास, पारदर्शिता और न्याय की स्थापना होती है, तो यह नैतिक है। यदि किसी स्थिति में असत्य बोलने से अधिक हित हो, तो वह नैतिक हो सकता है।


(घ) सामाजिक अनुबंध सिद्धांत (Contractarianism):

हॉब्स (Thomas Hobbes), रूसो (Jean-Jacques Rousseau) आदि के अनुसार समाज में शांति और सहयोग बनाए रखने के लिए लोग आपसी समझौतों द्वारा नैतिक नियमों को स्वीकारते हैं। सत्यवादिता इस अनुबंध का अभिन्न भाग है, क्योंकि इसके बिना संवाद और न्याय व्यवस्था टिक नहीं सकती।


(ङ) करुणा-केंद्रित नैतिकता (Care Ethics):

यह सिद्धांत मानता है कि नैतिकता नियमों से नहीं, बल्कि संबंधों और सहानुभूति से उत्पन्न होती है। सत्य इसलिए बोला जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे निकट संबंधों में विश्वास और गरिमा बनाए रखता है (Carol Gilligan)।


(च) विशिष्टतावाद (Moral Particularism):

यह मान्यता है कि कोई सार्वभौमिक नैतिक नियम नहीं होता। हर परिस्थिति में मूल्यांकन अलग हो सकता है। कभी-कभी सत्य न बोलना भी नैतिक हो सकता है, यदि उससे किसी की रक्षा हो रही हो (Jonathan Dancy).


* सत्य बोलने के पीछे गहरे कारण


नैतिक सिद्धांतों से परे यह देखना जरूरी है कि सत्यवादिता की जड़ें कहाँ तक जाती हैं:


(क) विकासवाद और जैविक तर्क (Evolutionary Logic):

मानव समाज में नैतिक गुण – जैसे सहयोग, न्याय और सत्य – केवल नैतिक आदर्श नहीं, बल्कि जीवित रहने की रणनीतियाँ भी रहे हैं।


जिन समूहों में आपसी विश्वास और पारदर्शिता थी, वे अधिक संगठित और शक्तिशाली बने।


झूठ से स्थायी संबंध नहीं टिकते, समाज बिखरता है।


(ख) समाज की संरचनात्मक आवश्यकता:

सत्य बोलने से न्यायपालिका, शासन, शिक्षा और व्यापार – सभी संस्थान टिके रहते हैं। यदि हर कोई धोखा दे तो समाज में भय और अव्यवस्था फैलेगी। इसीलिए, समाज ने नैतिकता को अनुशासन के रूप में स्थापित किया।


(ग) संस्कृति और परंपरा का योगदान:

भारतीय संस्कृति में "सत्यं वद, धर्मं चर" – जैसे सूत्र वेदों से लेकर महाभारत तक गूंजते रहे हैं। सत्य केवल एक नैतिक नियम नहीं, आत्मा की विशेषता (स्वधर्म) के रूप में देखा गया।


(घ) मनोवैज्ञानिक आधार:

सत्य बोलने से व्यक्ति को आंतरिक स्थिरता, आत्म-सम्मान और संबंधों में पारदर्शिता मिलती है। झूठ बोलना मानसिक तनाव, अपराधबोध और सामाजिक अलगाव को जन्म देता है।


* क्या नैतिकता केवल विकास और समाज की रणनीति है?


यह एक गूढ़ प्रश्न है। यदि नैतिकता केवल एक सामाजिक अस्तित्व के लिए रणनीति है, तो वह केवल "काम आने वाली चीज़" है – कोई अंतस्थ या अतर्निहित (intrinsic) मूल्य नहीं। परंतु:


मनुष्य केवल रणनीतिक नहीं, आत्म-चिंतनशील प्राणी है।


हम अपने जैविक या सामाजिक प्रवाह से असहमत होकर भी निर्णय लेते हैं (जैसे – करुणा से शत्रु को क्षमा करना)।


अतः नैतिकता का एक ट्रांसेंडेंट पक्ष भी होता है – जो हमें हमारे स्वार्थ, जाति, वर्ग और क्षणिक लाभ से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है।


* अतः "सत्य बोलना" केवल एक सिखाया गया नियम नहीं, बल्कि एक बहुस्तरीय मूल्य है


यह हमारी आत्मा की शुचिता का संकेत है (गुण-सिद्धांत),


यह कर्तव्य है (कर्तव्य-सिद्धांत),


यह समाज की स्थिरता की रीढ़ है (परिणामवाद और अनुबंध सिद्धांत),


और यह हमारे विकास की जैविक यात्रा का भी परिणाम है।


लेकिन साथ ही, यह मूल्य हमेशा संदर्भ के अनुसार विवेकपूर्ण होना चाहिए – क्योंकि कटु सत्य भी करुणा के बिना अनैतिक हो सकता है। इसीलिए भारतीय परंपरा में "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्" कहा गया – सत्य बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो।


जाते-जाते मैं महाभारत (ग्रंथ) की बात करूंगा। जब कृष्ण ने युधिष्ठिर को असत्य भाषण की सलाह दी तो युधिष्ठिर ने इसका विरोध किया। किंतु कृष्ण ने युधिष्ठिर के सत्य और द्रोण को मारने के लिए बोले जाने वाले असत्य के सामाजिक प्रभावों का विवेचन किया। इसपर युधिष्ठिर असत्य भाषण के लिए तैयार हो गये। यहां Consequentialist theory of morality खुल कर सामने आयी है। 

कुछ ऐसा ही कर्णवध  के समय हुआ है। इसे भूलना नहीं चाहिए।

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