पूर्वकल्पना और प्रेक्षण के बीच तनाव: ईर्ष्या और करुणा की मनोवैज्ञानिक संरचना एवं सामाजिक प्रभाव
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समाज के आर्थिक विकास और कल्याण के लिए उसके सदस्यों के बीच सहयोग और सहभागिता नितांत आवश्यक शर्त है। किंतु सहयोग और सहभागिता के लिए मानसिकता का रोल बहुत महत्वपूर्ण है। ईर्ष्यापूर्ण मानसिकता सहयोग और सहभागिता के लिए विष है जबकि करुणा और इंम्पैथी की भावना सहयोगिता और सहभागिता की पोषक है। इस लेख का विषय यही है, मनोवैज्ञानिक स्तर पर। एकाडेमिक नजर से यह इंन्स्टिट्युशनल इकोनोमिक्स की विषयवस्तु है।
हम जानते हैं कि मनुष्य अपने सामाजिक परिवेश को केवल अनुभव के माध्यम से नहीं, बल्कि पूर्वकल्पनाओं, स्मृतियों, अनुमानों और प्रतीकों के सहारे भी समझता है। जब किसी अन्य व्यक्ति की वास्तविक, प्रेक्षित स्थिति (observed status) उस व्यक्ति के बारे में मन में बनी पूर्व छवि (preconceived status) से मेल नहीं खाती, तो यह असंगति (cognitive dissonance) भावनात्मक प्रतिक्रिया को जन्म देती है। ऐसी स्थिति में दो भावनाएँ विशेष रूप से सक्रिय होती हैं — ईर्ष्या (jealousy) और करुणा (pity, empathy)। इसलिए, यहां हम इस परिघटना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं और इसके सामाजिक निहितार्थों की भी विवेचना करते हैं।
जब किसी व्यक्ति की वास्तविक प्रतिष्ठा उसकी पूर्वकल्पित प्रतिष्ठा से अधिक होती है, तो ईर्ष्या उत्पन्न होती है; और जब वास्तविक प्रतिष्ठा पूर्वकल्पना से कम होती है, तो करुणा उत्पन्न होती है। हम इस परिकल्पना के साथ आगे बढ़ते हैं।
यह परिकल्पना सामाजिक तुलना सिद्धांत (Social Comparison Theory – Festinger, 1954), अपेक्षा-उल्लंघन सिद्धांत (Expectancy Violation Theory – Burgoon, 1978), और संज्ञानात्मक असंगति (Cognitive Dissonance – Festinger, 1957) जैसे प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मॉडल्स पर आधारित है।
ईर्ष्या: अपेक्षा से अधिक स्थिति की प्रतिक्रिया
जब हम किसी व्यक्ति को अपने से कमतर मानते हैं और उसे अपेक्षा से अधिक समृद्ध, सफल या प्रभावशाली स्थिति में पाते हैं, तो यह हमारी आत्म-छवि के लिए चुनौती बनता है। यह स्थिति 'मैलिशियस एन्वी' (malicious envy – van de Ven et al., 2009) उत्पन्न करती है, जो व्यक्ति को असहज करती है और कभी-कभी वैमनस्य या सामाजिक दूरी का कारण बनती है। इस ईर्ष्या में वह छिपी होती है जो किसी अन्य की वृद्धि को व्यक्तिगत असफलता की तरह अनुभव करती है।
करुणा: अपेक्षा से न्यून स्थिति की प्रतिक्रिया
इसके विपरीत, जब कोई व्यक्ति जो हमारे मन में उच्च दर्जे पर था, अब पतित, पीड़ित या असफल दिखाई देता है, तो हम करुणा की अनुभूति करते हैं। यह भावना उसकी मानवीय कमजोरी की स्वीकृति के साथ उत्पन्न होती है। बैटसन (Batson et al., 1991) के 'एम्पैथी-अल्ट्रुइज़्म हाइपोथेसिस' के अनुसार, ऐसी करुणा व्यवहार में सहायता या त्याग की ओर ले जा सकती है — जो व्यक्तिगत संसाधनों (धन, समय, भावनात्मक ऊर्जा) की मांग करती है।
भावनात्मक लागत का तुलनात्मक विश्लेषण
यहाँ एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय पहलू सामने आता है: ईर्ष्या की लागत अपेक्षाकृत कम होती है, क्योंकि यह एक आंतरिक प्रतिक्रिया है जो प्रायः निष्क्रिय, आलोचनात्मक या कटु टिप्पणियों के रूप में प्रकट होती है। इसके विपरीत, करुणा की सामाजिक और आर्थिक लागत अधिक होती है, क्योंकि यह सहायतापरक कार्रवाई की मांग करती है।
इस असंतुलन के कारण, मानव मस्तिष्क सहज रूप से ईर्ष्या को अधिक सुगम विकल्प के रूप में अपनाता है। यह "low-cost preference bias" है — जहाँ मनुष्य कम लागत वाले भावों की ओर अधिक प्रवृत्त होता है। इसका परिणाम यह होता है कि ईर्ष्या की सामाजिक फ्रीक्वेंसी (social frequency) अधिक हो जाती है, जबकि करुणा अपेक्षाकृत दुर्लभ बनती है।
इसका दीर्घकालिक प्रभाव यह है कि समाज में सामूहिक संगठन और सहभावना के बजाय विघटनकारी प्रवृत्तियाँ अधिक विकसित होती हैं, जिससे सामाजिक पूंजी (social capital, Robert Putnam, 1995) का क्षरण होता है। ईर्ष्या व्यक्ति को अलगाव, प्रतिस्पर्धा और असहिष्णुता की दिशा में ले जाती है, जबकि करुणा संगठन, सहयोग और संरक्षण की भूमि तैयार करती है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण
यह सामाजिक संरचना के लिए एक चेतावनी है: यदि समाज में ईर्ष्या की प्रतिक्रियाएँ स्वाभाविक और सहज हों, जबकि करुणा कठिन और खर्चीली बनी रहे, तो दीर्घकाल में सामाजिक संगठन का क्षय अनिवार्य है। यह मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति व्यक्ति की रक्षा तो करती है, किंतु समाज की हानि का कारण बनती है।
इसलिए यह आवश्यक है कि करुणा को केवल एक व्यक्तिगत गुण न मानकर, सांस्थानिक स्तर पर पोषित किया जाए — जैसे सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, और सहकारिता के माध्यम से। इससे करुणा की लागत सामूहिक रूप से साझा की जा सकेगी और समाज में उसकी आवृत्ति को पुनर्संतुलित किया जा सकेगा।
सारांशतः, ईर्ष्या और करुणा केवल व्यक्तिगत भावनाएँ नहीं हैं; वे सामाजिक संरचनाओं और संस्थानों को प्रभावित करने वाले गहरे मनोवैज्ञानिक तंत्र हैं। जब ये भावनाएँ पूर्वकल्पित और प्रेक्षित प्रतिष्ठा के टकराव से जन्म लेती हैं, तब इनकी प्रकृति और लागत का विश्लेषण अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि समाज को अधिक संगठित, संवेदनशील और समन्वित बनाना है, तो करुणा की संभाव्यता और व्यावहारिकता को बढ़ाना अनिवार्य है — भले ही वह ईर्ष्या की तुलना में महंगी क्यों न हो।
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Raj K Mishra जी एवं पीयूष मिश्र जी की समालोचना के लिए।
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