रीढ़विहीन बौद्धिक वर्ग का निर्माण: नेहरूवादी नीतियाँ और उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय मन
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पहले अपनी बात: Gunnar Myrdal ने अपनी पुस्तिका 'Objectivity in Social Research (1969) में स्पष्ट लिखा है कि सामाजिक विज्ञान पर लेख में लेखक वस्तुनिष्ठ नहीं रह सकता। उसकी एक विचारधारा होगी। वह ईमानदार है तो अपनी विचारधारा के रुझान को खुलेआम सामने रख कर आगे बढ़ेगा। इसलिए मेरी धारणा को जानना जरूरी है। मैं लगभग 1966 से ही अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा। सैद्धांतिक अर्थशास्त्र और भारतीय अर्थशास्त्र के बीच की दूरी मुझे हमेशा हतबुद्धि करती रही। मुझे यह समझ में नहीं आता था कि भारतीय अर्थशास्त्र सचमुच में आर्थिक विश्लेषण है या 'सरकार ने यह किया और वह किया' की कहानी है, apologia है। लगातार फेल होती हुई योजनाओं की समीक्षा भी मुझे बनावटी लगती थी। मुझे लगता था कि हम और हमारे पुस्तकों के लेखक ईमानदार नहीं हैं। यही बीज है इस लेख का।
मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता के पश्चात भारत में बौद्धिक वर्ग के संरचनात्मक और वैचारिक परिवर्तन की विवेचना आवश्यक है। यह सोचना ज़रूरी है कि किस प्रकार नेहरूवादी नीति ने अपने सांख्यिकीय, तकनीकी और धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के माध्यम से बौद्धिक स्वायत्तता को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभायी। मेरा मानना है कि उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता की ओर संक्रमण के दौरान, आलोचनात्मक बौद्धिकता की जगह संस्थागत समर्पण ने ले ली, और सरकारी नीति ने सत्य के पक्षधर विचारकों को राज्य-आश्रित ज्ञान-कर्मियों में बदल दिया। परिणामस्वरूप एक ऐसा बौद्धिक वर्ग पैदा हुआ जो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय, सांस्कृतिक रूप से अलग-थलग और नैतिक रूप से निस्तेज हो गया।
I. एक मौन वर्ग का रहस्य
प्रायः प्रगतिशील लोकतंत्रों में बौद्धिक वर्ग—लेखक, विद्वान, कलाकार और सार्वजनिक चिंतक—समाज की अंतरात्मा का कार्य करते हैं। वे सत्ता से प्रश्न करते हैं, अन्याय को उजागर करते हैं, और यथार्थ तथा विचारधारा के बीच सेतु का निर्माण करते हैं। किंतु भारत में स्वतंत्रता के बाद यह भूमिका उलट गई। वह वर्ग, जिसने कभी स्वतंत्रता संग्राम का बौद्धिक नेतृत्व किया था, स्वतंत्रता के उपरांत बौद्धिक रूप से निष्क्रिय और नैतिक रूप से दुर्बल हो गया। इस लेख में मैं पूछता हूं: ऐसा क्यों हुआ? और इस प्रक्रिया में नेहरू की नीतियों की क्या भूमिका रही? और अपनी समझ से उत्तर भी देता हूं।
II. औपनिवेशिक विरासत और पूर्व-स्वतंत्रता बौद्धिक सक्रियता
औपनिवेशिक काल में भारत के शिक्षित वर्ग में गहन नैतिक और राजनीतिक बेचैनी थी। राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, भीमराव आम्बेडकर और महात्मा गांधी जैसे विचारकों ने न केवल औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी बल्कि वे देश के आंतरिक सामाजिक दोषों से भी जूझे। उनके लिए शिक्षा केवल सामाजिक स्थिति प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि मुक्ति और पुनर्रचना का उपकरण थी।
शिक्षण संस्थानों में सीमित संसाधनों के बावजूद, वैचारिक स्वतंत्रता और आलोचनात्मक आत्म-समीक्षा के लिए स्थान था। उस समय का बौद्धिक एक विद्रोही था, जो सत्य के लिए अपने सुख-आराम को त्यागने को तैयार था।
III. स्वतंत्रता के बाद की दिशा: आलोचना से अनुकूलन की ओर
1947 के बाद एक मूलभूत परिवर्तन घटित हुआ। ब्रिटिश राज्य, जो कभी आलोचना का लक्ष्य था, अब 'अपना' राज्य बन गया। सत्ता और ज्ञान के बीच की दूरी समाप्त हो गई। नई भारतीय राज्य-व्यवस्था ने नौकरी, अनुदान, पुरस्कार और प्रतिष्ठा के रूप में बौद्धिकों को अपनी छाया में ले लिया।
परिणामस्वरूप, असहमति के स्थान पर सहमति को प्राथमिकता मिली, विश्वविद्यालय जीवन में नौकरशाही का वर्चस्व हुआ, बौद्धिक कार्य अब आलोचना नहीं, बल्कि योजनाबद्ध 'समाधान' बन गया।
IV. नेहरूवादी नीति और बौद्धिक सह-अनुकरण
नेहरू की आधुनिक, 'नेहरूवियन' धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील दृष्टि अपने आप में नवीन और आकर्षक थी। परंतु इसकी कुछ अनचाही परिणतियाँ भी हुईं, विशेष रूप से बौद्धिक वर्ग की वैचारिक स्वतंत्रता के क्षरण में। निम्नलिखित चार बिंदु इस प्रक्रिया में निर्णायक रहे:
1. राज्यवाद और संस्थागत अधिग्रहण: नेहरू का विश्वास था कि प्रगति का प्रमुख माध्यम राज्य ही है। इस कारण ज्ञान का अधिकांश उत्पादन राज्य-नियंत्रित निकायों (UGC, ICSSR, सरकारी विश्वविद्यालय) द्वारा संचालित हुआ। बौद्धिकों की पदोन्नति, मान्यता और रोजगार राज्य पर निर्भर हो गई। परिणामस्वरूप वैचारिक आज़ादी बाधित हुई।
2. तकनीकीकरण बनाम चिंतन: फैबियन समाजवाद के प्रभाव में पांच वर्षीय योजनाओं और तकनीकी प्रबंधन पर बल दिया गया। दार्शनिक, कवि और सांस्कृतिक समीक्षक पीछे हट गए और अर्थशास्त्री, योजनाकार और वैज्ञानिक केंद्र में आ गए। जो कवि और लेखक थे, वे, तकरीबन सभी, सत्ता की विचारधारा के हिमायती बन गये। आलोचना की जगह आंकड़ों ने ले ली।
3. ऊपर से थोपे गए धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विच्छिन्नता: नेहरू की धर्मनिरपेक्षता ने भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता को अक्सर 'प्रतिक्रियावादी' कहकर नकार दिया। धर्म, परंपरा, और लोक-ज्ञान की वैकल्पिक व्याख्याएँ अस्वीकार्य घोषित कर दी गईं। इससे एक 'विचारधारा-निर्मित धर्मनिरपेक्षता' का निर्माण हुआ, जो बौद्धिकों को एक सांचे में ढालता था।
4. अंग्रेजी-केंद्रितता और जनता से दूरी: अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा को प्रगति का प्रतीक मानते हुए, भारतीय बौद्धिक वर्ग को अपनी ही संस्कृति और जन-जीवन से काट दिया गया। वह वर्ग जो ऑक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज में सहज था, गाँव और कस्बों के अनुभवों से अपरिचित हो गया।
V. दीर्घकालिक परिणाम: संस्थागत और नैतिक पतन
इस नीति-परिवेश के परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय नौकरशाही के अड्डे बन गए,
मीडिया सत्ता के प्रचारक बन गए, साहित्य और कला ने अपने राजनीतिक स्वभाव को खो दिया, सार्वजनिक विमर्श संकीर्ण, तकनीकी और विचारहीन हो गया।
बुद्धिजीवी अब अपने करियर की चिंता में मौन साधने लगे। मौन, सुरक्षा का पर्याय बन गया और समरूपता, सफलता का।
VI. 'सजीव' से 'अनुचर' बौद्धिकता तक की यात्रा
एंटोनियो ग्राम्शी ने 'सजीव बौद्धिक' (organic intellectual) और 'परंपरागत बौद्धिक' (traditional intellectual) के बीच अंतर किया था। स्वतंत्रता के बाद भारत में पहले वर्ग का ह्रास और दूसरे का संस्थानीकरण हुआ।
नेहरूवादी ढाँचा, अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद, एक स्वतंत्र बौद्धिक वर्ग को विकसित नहीं कर पाया। इसके बजाय एक 'सरकारी विचारक' वर्ग उत्पन्न हुआ—शिक्षित, वक्ता, और पदलाभी/पदलोभी, परंतु नैतिक रूप से निर्बल और सांस्कृतिक रूप से अनगढ़।
VII. स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक पाखंड
यह कहना बौद्धिक रूप से तार्किक है कि स्वतंत्र भारत में जिन मूल्यों और आदर्शों—समाजवाद, लोकतंत्र, और धर्मनिरपेक्षता—का सार्वजनिक रूप से प्रचार हुआ, वे अक्सर केवल प्रतीकात्मक या दिखावटी रहे हैं। इनका वास्तविक व्यवहार और प्रभाव अनेक बार राजनीतिक पाखंड (hypocrisy) में बदल गया।
i). समाजवाद का पाखंड: योजनाबद्ध पूंजीवाद का आवरण
आधिकारिक दावा: स्वतंत्र भारत ने 'समाजवादी विकास प्रतिरूप' को अपनाया, जिसका उद्देश्य समानता और न्यायसंगत संसाधन वितरण था। लेकिन वास्तविकता यह थी कि राज्य स्वयं एक विशेषाधिकारयुक्त पूंजीपति बन गया। नियोजन और लाइसेंस-परमिट राज के माध्यम से चुनिंदा औद्योगिक घरानों को विशेष संरक्षण मिला (जैसे बजाज, बिड़ला)। अगर किसी को रुचि हो तो वह आजादी के बाद प्रमुख औद्योगिक घरानों (तकरीबन 20-25 मुख्य औद्योगिक ग्रुप्स) का विकास और उनके सत्ता के संबंधों का विश्लेषण करे। दूसरी तरफ, ग्रामीण और श्रमिक वर्ग की वास्तविक शक्ति-वृद्धि नहीं हुई, बल्कि सत्ता और संसाधनों पर धनाढ्यों का कब्ज़ा और मज़बूत हुआ। शिवचन्द्र झा ने इसे 'समाजवाद की आड़ में पूंजीवाद की उन्नति' बताया। अशोक रूद्र ने बौद्धिक वर्ग को इस पूंजीवादी साज़िश का 'सहयोगी' बताया।
ii). लोकतंत्र का पाखंड: चुनावी औपचारिकता, जन-सहभागिता नहीं
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है—यहाँ आम मताधिकार और नियमित चुनाव होते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि लोकतंत्र केवल मतदान तक सीमित हो गया है। जनता की नीति निर्माण में कोई ठोस भागीदारी नहीं होती। संसद में बहस और विमर्श कमजोर हुए हैं; सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है। संसद की बैठकें बहुधा तमाशे की तरह होते हैं। फलतः आम नागरिक प्रशासन से विमुख हो गया है। राजनीति पर जाति, धनबल और बाहुबल हावी हो गए हैं।
iii). धर्मनिरपेक्षता का पाखंड: राज्य की छद्म तटस्थता
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जो सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखता है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि राज्य ने कभी तो धर्मनिरपेक्षता को चयनित पक्षपात का जरिया बना लिया, कभी मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथ में लिया, तो कभी अल्पसंख्यकों को तुष्टीकरण के माध्यम से राजनीतिक लाभ हेतु उपयोग किया। वोट बैंक राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता को नीति की जगह रणनीति बना दिया। परिणाम यह हुआ है कि समाज में वास्तविक सांप्रदायिक सौहार्द नहीं बन पाया। धार्मिक पहचानें राजनीति का उपकरण बन गईं। आदर्शों की आड़ में व्यवस्था का यथार्थ यह है कि स्वतंत्र भारत की बौद्धिक-राजनीतिक प्रणाली ने आधुनिकता के महान आदर्शों को केवल वैचारिक आवरण की तरह अपनाया, परंतु उनका वास्तविक कार्यान्वयन शक्तिसंपन्न वर्गों के हित में हुआ। समाजवाद ने पूंजीवाद को संरक्षण दिया, लोकतंत्र ने जनविमुख शासकीय केंद्रीकरण को जन्म दिया, और धर्मनिरपेक्षता ने सांप्रदायिक राजनीति को बल दिया।
इसलिए यह कहना तथ्यपरक और ऐतिहासिक रूप से सुसंगत है कि भारत में स्वतंत्रता के बाद जो कुछ भी घोषित किया गया—वह अधिकांशतः राजनीतिक पाखंड था, न कि सच्चे सामाजिक परिवर्तन की परियोजना।
VIII. अर्थशास्त्र और राजनीति से हटकर हिंदी साहित्य और आलोचना की बात
मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूं कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में होने वाले रिसर्च में भक्तिकाल पर बहुत जोर दिया गया। भक्तिकाल को हिंदी साहित्य में 'स्वर्ण युग' के रूप में प्रतिष्ठित किया गया — तुलसी, कबीर, सूर, मीराबाई जैसे संत-कवियों को ‘लोकभाषा’ और ‘लोक-आस्था’ के प्रतिनिधि मानकर। कारण यह है कि नेहरू युगीन राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया को एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा चाहिए थी जो हिंदू-मुस्लिम संवाद, धर्मनिरपेक्षता, समन्वय, और जनता की आवाज के प्रतीक रूप में प्रस्तुत की जा सके। भक्तिकाल का विमर्श इन सभी मूल्यों को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत करता था — इसलिए यह एक सुविधाजनक अतीत बन गया। नेहरू युग में संस्कृति को राज्य प्रायोजित उदार आधुनिकता की भाषा में पुनर्गठित किया गया। संस्थाएं बनीं — साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) आदि। हिंदी विभागों के लिए UGC और विश्वविद्यालयों की ओर से अनुदान, शोध विषयों की अनुशंसा, और पीएचडी की स्वीकृति — ये सब एक सांस्कृतिक प्राथमिकता निर्धारण के तहत चलने लगे। ऐसे में भक्तिकाल पर शोध राज्य-सम्मत 'सुरक्षित क्षेत्र' बन गया — न वह विद्रोही था, न साम्यवादी, न जातीय उभार का प्रतिनिधि। कबीर या रविदास जैसे कवियों में गहन सामाजिक आलोचना है, पर विश्वविद्यालयीय विमर्श ने उन्हें 'अध्यात्मिक लोककवि' तक सीमित कर दिया। उनके सामाजिक प्रतिरोध को भाषाई, प्रतीकात्मक या तात्विक विमर्श बना दिया गया — जिससे व्यवस्था को कोई खतरा न हो।
भक्तिकाल एक तरह का वैचारिक निष्क्रियता क्षेत्र बन गया। हिंदी विभागों में जब वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक विरोधाभासों पर शोध टाला जाने लगा, तब भक्तिकाल एक ऐसा क्षेत्र बना जहाँ "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" बनी रहे, पर वास्तविक सामाजिक हस्तक्षेप न हो। यह नेहरू युग की बौद्धिक 'फील्ड-मैनेजमेंट' नीति का हिस्सा था — जिसमें साहित्य को परंपरा का वाहक बना दिया गया, न कि संघर्ष का मंच। इस तरह हिंदी विभागों में भक्तिकाल पर अत्यधिक शोध राज्य-प्रायोजित सांस्कृतिक नीति के अंतर्गत एक 'नियंत्रित अतीत' का निर्माण है। यह अतीत ऐसा था जिसमें असहमति को संतुलित रूप में दिखाया जा सके, और वर्तमान व्यवस्था से टकराव न हो। ध्यातव्य है कि हिंदी जनमत निर्माण के लिए बहुत सशक्त भाषाई उपकरण है।
यह सब दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। यदि भारत को फिर से बौद्धिक पुनर्जागरण की ओर ले जाना है, तो उसे फिर से उस आत्मसमीक्षक, जनसंपृक्त और नैतिक रूप से प्रतिबद्ध बौद्धिकता को जीवित करना होगा, जो कभी उसकी आत्मा थी। जब तक यह नहीं होता, भारतीय बौद्धिक वर्ग एक 'साक्षर श्रमिक' बना रहेगा—जानकारी से भरपूर, पर रीढ़विहीन।
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Helpful Readings:
1. Antonio Gramsci, Selections from the Prison Notebooks.
International Publishers, New York, 1971.
– A foundational text on the theory of cultural hegemony and the role of intellectuals in society.
2. Partha Chatterjee, The Nation and Its Fragments: Colonial and Postcolonial Histories.
Princeton University Press, Princeton, NJ, 1993.
– Explores how Indian nationalism shaped and fragmented the postcolonial intellectual landscape.
3. Ashis Nandy, The Intimate Enemy: Loss and Recovery of Self Under Colonialism.
Oxford University Press. Second edition (reprint): 2009.
– Analyzes how colonialism shaped the Indian psyche and created a new class of deracinated intellectuals.
4. Shiv Visvanathan, Organizing for Science: The Making of an Industrial Research Laboratory. Oxford University Press (Delhi), 1985.
– A critical work on how Indian science and knowledge institutions were shaped by bureaucratic rationality.
5. André Béteille, The Idea of Indigenous Scholarship. Current Anthropology, 39(2),1998.
– Discusses the importance of autonomy and rootedness in intellectual inquiry in India.
6. M.K. Gandhi, Hind Swaraj or Indian Home Rule
Navajivan Publishing House, Ahmedabad,1938.
– A civilizational critique of modernity, machinery, and the Western model of education and politics.
7. Jawaharlal Nehru, The Discovery of India
The Signet Press, Calcutta, 1946.
– Nehru’s magnum opus reflecting his vision of Indian history, culture, and modern nation-building.
8. T.K. Oommen, Knowledge and Society: Situating Sociology and Social Anthropology.
Oxford University Press, 2007.
– Contextualizes the institutional evolution of Indian social sciences in post-independence India.
9. Ashok Rudra, Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, Economic and Political Weekly, 24(3), 1989.
– Rudra critically examines how India's intelligentsia—academics, planners, bureaucrats—came to function not merely as critics or observers, but as collaborators of power and capitalism. He analyzes their transformation into a quasi-ruling class intricately linked with industrial and state interests, especially during the post-independence era.
10. Shiv Chandra Jha,
Studies in the Development of Capitalism in India (1963), Firma K.L. Mukhopadhyay, Calcutta .
– In this significant work, Jha analyzes how the post-independence socialist pattern of planning in Nehruvian India functioned less as a break from capitalism and more as a strategic pathway facilitating its growth. He critically argues that state-led planning and socialist rhetoric often masked the deeper integration of the intelligentsia and state institutions into capitalist modernity—thus enabling capitalist expansion rather than containing it.