रविवार, 22 जून 2025

औपनिवेशिक आलोचना से सरकारी अध्ययन तक: भारतीय अर्थशास्त्र की कहानी

औपनिवेशिक आलोचना से सरकारी अध्ययन तक: भारतीय अर्थशास्त्र की कहानी

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“जब इल्म, हुकूमत की चौखट पर सज़ा करे, तो सवाल उठता है गुस्ताख़ी बन जाता है।”


1. अर्थशास्त्र सिद्धांत आँकड़ों की बाज़ीगरी नहीं


अर्थशास्त्री कोई तकनीकी चीज़ नहीं है। ये वो ज़रिया है जिससे हम ये समझते हैं कि समाज कैसा रहता है, ताक़त कैसे बँटती है, और वैज्ञानिक कहाँ गायब हो जाते हैं। लेकिन हिंदुस्तान में इस इल्म की अजब कहानी रही है। सबसे पहले ये हुकूमत से सवाल किया गया था, इसके बाद ये हुकूमत की लोकप्रियता में लग गया।


2. गुलामी का दौर: जब अर्थशास्त्र इंकलाबी था


भारत में आधुनिक अर्थशास्त्र का आरंभिक विरोध हुआ था। दादाभाई नौरोजी, रानाडे, आरसी दत्त और रजनी पाम दत्त जैसे लोगों ने इस इल्म को एक औपनिवेशिक नाइंसाफ़ी के पर्दाफ़ाश के रूप में इस्तेमाल किया।


● दादाभाई नौरोजी:


उनके "ड्रेन थ्योरी" ने बताया कि ब्रिटेन के हिंदुस्तान से लूट कर ले जा रहा है। ये महज़ परंपरा की बात नहीं थी, बल्कि एक राष्ट्र की बात तबाही की फ़रियाद थी।


● महादेव गोविंद राणाडे:


उन्होंने कहा कि केवल आर्थिक तरकीबें नहीं, बल्कि सामाजिक वैज्ञानिक और स्वदेशी उद्योग अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके लिए अर्थनीति एक नैतिक गुण थी।


● रोमेश चंद्र दत्त और रजनी पाम दत्त:


उन्होंने कैपिटल, मजदूर और सत्ता के अधिकार को समझाते हुए यह दर्शाया कि औपनिवेशिक हुकूमत कैसे एक वर्ग के आधार पर लूट का ढांचा था।


इन सभी में एक बात थी कॉमनवेल्थ - स्लोक का इकोनोमिक लॉजिक।


3. प्रमुख के बाद: प्रश्न कम, मूल्य अधिक


जब मिल गया, तब लगा अब अर्थशास्त्र आज़ाद हवा में सांस उपकरण। लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका विकास एवं सामाजिक न्याय का तर्क होना चाहिए। वह नहीं हुआ. भारत की आजादी राजनीतिक आजादी ही थी, लेकिन वह न तो वैश्वीकरण की आजादी थी, न ही वैश्वीकरण की आजादी थी, और न ही लोकतंत्र की आजादी थी।


नेहरू जी के आह्वान में पंचवर्षीय संधि और समाजवाद की बातें तो बहुत याद आ गईं, मगर साथ ही अर्थशास्त्रियों को सरकार का हमनवा बना दिया गया।


●पाठ्यक्रमों में दीक्षा की व्यवस्था होने लगी,


● आलोचना को "विघ्न" समझा गया,


● और अर्थशास्त्र डेटा एक किताब बनकर रह गया।


जो किताबें पढ़ाई जाती हैं, वे बस आँकड़े होते थे - जैसे किसी बच्चे को चिड़ियाघर में जानवर दिखाते हैं, लेकिन उनकी जिंदगियाँ, उनकी जगहें, उनकी कोई बात नहीं हो। ऐसे में ना तो प्राणीशास्त्र समझ आता है, ना ही अर्थशास्त्र।


4. ये तबदीली क्यों आई?


● राजनीतिक कारण:


नेहरू के काल में योजनाबद्ध विकास को एक "कौमी आस्था" बनाया गया। जो उनकी आलोचना करता है, वो "राष्ट्रद्रोही" कहलाने लगते हैं।


●शुरूआत ढ़ाचा:


यूनिवर्सिटियों में विचारधारा वाले प्रोफेसर की जगह वो लोग आए जो "सरकारी नीति" को ही आखिरी सच मानते थे।


● बाज़ारी विकल्प की कमी:


क्योंकि प्राइवेट सेक्टर को शक के अंतर से देखा गया था, इसलिए अलग-अलग नजरियां जगह ही नहीं मिलीं।


5. परिणाम: एक खोखली प्रतिभा


अर्थशास्त्री बस सरकारी रिपोर्टों के भोंपू बनकर रह गए। मॉडल शिक्षा से बड़ी-बड़ी प्रतियोगिता प्रतियोगिता तक।


"सवाल उठा जोखिम" और "साथ देना पूर्ति" बन गया।


और जो किसी भी योजना की अंगुली पर उंगली उठाता है, उसे "सृजनात्मक नहीं" कहा जाता है।


6. अब डूबना है एक नई अज़ाज़ की


आज जब देश बेरोजगार, बेरोज़गारी, और सांस्कृतिक संकट से जूझ रहा है, तब पता चलता है कि अर्थव्यवस्था फिर से सवाल पूछना शुरू कर देती है।


जीडीपी की बात तो ठीक है, लेकिन अब मस्जिद, इज्जत और इख्तियार की भी बात होनी चाहिए।


मैरीन कैपिटल और मैरीलैंड को मंजूरी जरूरी है, लेकिन मॉर्गनि रिजर्व के पुलिंदे की तरह नहीं।


7. आख़िरी बात: क्या है अर्थशास्त्र फिर से डेविल्स निर्माण?


दादाभाई नौरोजी ने जो प्रश्न उठाया था उससे ब्रिटिश संसद भी हिल गई थी।

रानाडे ने नीति को नीति (नैतिक नैतिकता) से जोड़ा था।

रजनी पाम दत्त ने हुकूमत की पुरानी सच्चाई को सामने रखा।


आज का अर्थशास्त्र क्या कर रहा है? जब तक ये इल्म सिर्फ सत्ता का पिछड़ा बना रहेगा, तब तक ये देश के गरीब, मजदूर, किसान और आम आदमी की आवाज नहीं बनेगी।

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नेहरूवादी क्रोनी पूंजीवाद और भारत में रिश्वतखोरी की तहजीब का उदय

नेहरूवादी क्रोनी पूंजीवाद और भारत में रिश्वतखोरी की तहजीब का उदय

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जब उसूलों में इन्साफ़ की जगह सिफ़ारिश ले ली जाती है, तो ज़ुल्म एक दस्तूर बन जाता है।


*मुद्दे की बुनियाद


स्वीडन के नामवर इकोनोमी ग्लारर्डल ने अपनी किताब एशियन ड्रामा (1968) में हिंदुस्तान की साकी और करप्शन की जो तस्वीर पेश की थी, वह आज भी हू-ब-हू सही बैठती है। उन्होंने यह भी लिखा कि इस मुद्दे पर शोध करना तब ग़ुलाह-ए-अज़ीम समझा जाता था। मगर चुभन के साथ परिवर्तन, और आज "इकोनॉमिक्स ऑफ करप्शन" एक मनी हुई ड्रैगन शाखा बन गई है।


अगेंस्ट द स्ट्रीम नामक दूसरी किताब में मिर्डल की एक दिलचस्प वाकिया बयानबाजी की गई है। दिल्ली हवाई अड्डे पर, नेहरू से विदा लेने के बाद, उन्होंने देखा कि दूर से कुछ ड्राइवर शोरगुल कर रहे हैं।

उन्होंने दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी से पूछा कि ये लोग बारिश क्यों कर रहे हैं, और पुलिस इन्हें क्यों नहीं कर रही।

अफ़सोर ने दिया जवाब:

"हम भिक्षु हैं, सर। अगर हम हस्तक्षेप करेंगे तो वे चिल्लाएंगे कि पुलिस वाले पैसे मांगते हैं।"


मिर्डल ने पूछा: "लेकिन उन पर विश्वास कौन करेगा?"

उत्तर मिला: “कौन विश्वास नहीं करेगा सर?”

यानी, रिश्वतखोरी को लोग इतने आम और स्वाभाविक मान चुके थे कि उनकी इल्ज़ाम ख़ुद पुलिस को भी डर लगने लगा था।


अगेंस्ट द स्ट्रीम में मिर्डल ने एक और वाकये का बयान दिया है: एक लंबे प्रवचन के बाद जब वो पंडित नेहरू के साथ बाहर निकल रहे थे, तब उनका घनत्व स्थिरता से भाग आया और कुछ झिझकते हुए कहा: "सर, सामाजिक वैज्ञानिकता पर बहस तो एजेंडे में थी, मगर उस पर कोई बातचीत नहीं हुई।"


नेहरू का चेहरा तमतम उठा। उन्होंने बिना लफ़्ज़ों को नर्म किया

"ऐसी बातें अजेंडा में हुई और बैठक की रिपोर्ट के मुख में दर्ज करने के लिए होती हैं, न कि वाकाई में गुफ्तगु करने के लिए!"


इस एक जुमले से ये साफ़ झलकता है कि किस हद तक कुछ मस्जिदें शोरूम थे, और पंडित नेहरू के लिए हक़ीक़त में कोई रसायन नहीं थे।


सोशल साइट्स ने उनके लिए एक नारा था—एक एस्कॉट वेजिटेबल—मगर नियति की तह में वह कभी भी नहीं गया।


*नेहरू का इमामत और तानाशाही का सूरत


ईसा मसीह के बाद भारत के पास गांधी, त्याग, और धर्म का एक नैतिक सिद्धांत था। लेकिन जब आर्थिक नीति की बात आई तो यह सैद्धांतिक सिद्धांत एक राज्य-सापेक्ष विचारधारा की ओर झुका।


नेहरू की ख्वाहिश थी कि समाजवाद की प्रेरणा से एक योजना और औद्योगिक विकास हो, जिससे आगे बढ़ें। मैग्राही सेंट्रल वैधानिक नियंत्रण, लाइसेंस- दस्तावेज़ राज, और ब्यूरोक्रेसी राज वह ढांचा बन गया, जिसने क्रोनी कैपिटल इस्लाम और रिश्वत की तहजीब को जन्म दिया।


*:राज्य के मुनाज्जम शाह पर नाफा वाले


जो मुसलमान हुकूमत के करीब थे या फिर इमाम रहनुमाओं का हाथ कंधे पर था, उन्हें मुसलमानों के लिए दरवाज़ा खुला मिला। निशादास बिड़ला, जोगांधीजी के अमूल्य थे, के बाद राष्ट्रनिर्माता संस्थापति बने। सरकारी मंजूरी में तरज़ीह मिली, क़ायदे-क़ानून ने उनका मुफ़ीद बनाया।


इसके बराक्स, रामकृष्ण डालमिया, सिंघानिया, वालचंद हीराचंद—जिनकी सोच ज़रा अलग थी या जो कांग्रेस की ''लाइन'' में फिट नहीं थे, राजनीतिक तफ़तीश, कानूनी केसों और सरकारी दबावों का सामना करना पड़ा। कई बार तो यह दबाव सिर्फ इसलिए बनता था कि वे किसी "प्रिय उद्योगपति" के बाजार में कम कर दी थी।


इस तरह, प्रोटोटाइप ही मसारियो की ज़मानत बन गई—यही क्रोनी पूंजीवाद की असल पहचान है।


* ब्यूरोक्रेसी का रुतबा और 'सुविधा शुल्क' का दस्तूर


जब हर इज़्ज़तनामा, हर मंज़ूरी, लाइसेंस हर सरकारी बाबू के दस्तख़त पर मुँह ताकता हो, तो फिर सिफ़ारिश, रिश्वत और ज़मीन की मशीनरी बढ़ जाती है। शुरुआत-शुरू में ये निश्चित रूप से-तरीके बस बड़े पैमाने तक सीमित थे, लेकिन जल्द ही ये अफ़सोसशाही की रगों में ऐसी दौड़ें कि उद्योग का अनिवार्य हिस्सा बन गया।


रॉ माल, विदेशी अलॉटमेंट के पासपोर्ट, बैंक ऋण, रियायती-हर जगह ऑफसर की मेहरबानी होनी चाहिए थी।

कभी राजनीतिक सरपरस्ती, तो कभी नक़द नज़राना—बिना इसका न कारोबार था, न फ़ैक्टरी।


*जब रिश्वत बनी एक तहज़ीबी बनी


जो पहले पासपोर्ट लाइसेंस और थेकों में था, वह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे समाज की हर परत में घुस गया।


स्कूल में क्या रखा जाना चाहिए? रिश्वत दो.

सरकारी अस्पताल में खरीदारी करनी चाहिए? रिश्वत दो.

थाने में FIR लिखवानी है? रिश्वत दो.

अफ़सोसशाही में पोस्टिंग या प्रमोशन? बोली लगाओ।


सिस्टम ऐसा हो गया कि ईमानदार व्यक्ति को या तो हार माननी पड़ी थी, या सहमति बनी हुई थी।

उधार अब एक जुर्म नहीं रही—वह एक "प्राकृतिक शुल्क" बन गया था।


*नेहरू की नीति और ज़मीनी नाकामी


नेहरू के इरादे बेशक नेक थे, मगर उन्होंने जिन आस्थाओं और समर्थकों को खड़ा कर दिया, उनमें निष्ठा की जगह उत्तरदायित्व की जगह, और तीर्थस्थलों पर नियंत्रण की व्यवस्था दी गई।


उनकी नीति के उसूल ऊँचे थे, लेकिन अमल में उभरते अफ़सरशाही और सत्ता-पसंद ने उनूलों को कुचल दिया। एक झलक ऐसा भी आया जब “नीतिगत आदर्शवाद, व्यावहारिक अवसरवाद की कठपुतली बन गई।”


*नतीज़ा: दो जुड़वाँ राक्षस


इस कुल परिणाम में यह हुआ कि भारत में दो ऐसे शेयरधारक हो गए जो जुड़वाँ मगर जहरीले थे:


क्रोनी कैपिटलिज्म, जिसमें चंद चुने हुए निवेशकों को सरकारी आशीर्वाद मिला


सोयायटी गोदाम खोरी, जिसमें आम आदमी को हर स्तर पर सिक्के खरीदे जाते थे


जहाँ एक ओर सत्ता और संस्था का गठजोड़ आर्थिक विचारधारा का जन्म हुआ, वहीं दूसरी ओर समाज का हर तबका रिश्वत को "ज़रूरी ज़रिया" देने की मांग की गई।


* अंतिम बात


आज अगर भारत में करप्शन सिर्फ एक मसला नहीं है, बल्कि एक "जीवित व्यवस्था" है, तो उसकी जड़ें हमें अस्तित्व में लाती हैं, उसी दौर में जब उम्मीदों की सरकार ने, आदर्शों की नींव में, संरक्षित पूर्व की फसल बोई थी।


नेहरूवादी आदर्शवाद का दुर्भाग्य यह था कि वह अभिनय की दुहाई दे रहे थे, लेकिन ज़मीनी हकीकत में वह न सच्ची कहानी दी, न पुष्टि—बल्कि आम लोगों को मौका दिया।

ईमानदारी और नैतिक पलायन: लाल बहादुर शास्त्री की

ईमानदारी और नैतिक पलायन: लाल बहादुर शास्त्री की राजनीतिक भूमिका की एक पुनः समीक्षा

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भारतीय जनमानस में लाल बहादुर शास्त्री एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हैं जो सादगी, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं। उनके जीवन के अनेक प्रसंग, जैसे ट्रेन में अपने डब्बे का कूलर बंद करवाना, या एक रेल दुर्घटना के बाद त्यागपत्र देना, उन्हें नैतिकता के ऊँचे मानदंड पर स्थापित करते हैं। किंतु जब इस आभामंडल को एक गंभीर ऐतिहासिक समीक्षा की दृष्टि से देखा जाता है, तब कुछ असहज प्रश्न उठते हैं: क्या शास्त्री जी की यह निजी ईमानदारी उस युग की सार्वजनिक नीतिगत अन्याय से संघर्ष करती दिखाई देती है? क्या उन्होंने उस सत्ता-संरचना में रहकर नैतिक सहयोग किया जो अक्सर नैतिकता-विरोधी नीतियों को जन्म देती रही?


* ईमानदारी: निजी गुण या सार्वजनिक दायित्व?


भारतीय परंपरा में धर्म केवल निजी सदाचार नहीं, बल्कि सार्वजनिक उत्तरदायित्व का भी नाम है। रामायण से लेकर महाभारत तक, यह स्पष्ट है कि राजा या मंत्री का धर्म केवल निजी शुचिता नहीं, बल्कि जनहित में न्याय का पक्ष लेना है।


शास्त्री जी की निजी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं। लेकिन जब वे नेहरू की मंत्रिपरिषद में एक दीर्घकाल तक रहे, उस दौरान उन्होंने न तो नेहरू की नीतिगत विफलताओं की आलोचना की, न ही समाजवादी-नियंत्रणवादी अर्थनीति के कारण उपजे अन्यायपूर्ण प्रशासनिक ढाँचे का प्रतिकार किया।


* नेहरू युग और शास्त्री की भूमिका


नेहरू युग में क्रोनी कैपिटलिज़्म की नींव रखी गई (कुछ औद्योगिक घरानों को विशेष संरक्षण मिला)। ग्राम समाज की उपेक्षा की गई, जबकि पंचायती राज केवल प्रतीकात्मक बना रहा। ब्यूरोक्रेटिक केंद्रीकरण और लोकसेवाओं में भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक समाज की सांस्कृतिक पहचान को अपमानित किया गया। इन सबके बीच शास्त्री जी का मौन रहना या उस सत्ता-संरचना को बनाए रखना क्या एक प्रकार की नैतिक कायरता नहीं है?


ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शास्त्री जी ने नेहरू जी की नीतियों का कोई स्पष्ट "मुखर विरोध" नहीं किया। वे नेहरू के अत्यंत विश्वस्त सहयोगियों में से थे और लगभग पूरे नेहरू-युग में केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों पर रहे:


1951–56: रेल मंत्री

1956–61: परिवहन, संचार और वाणिज्य मंत्री

1961–63: गृह मंत्री


इन वर्षों के दौरान उन्होंने नेहरू की समाजवादी योजना अर्थनीति, पंचवर्षीय योजनाओं, भारत-चीन नीति, धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा, आदि पर कभी कोई तीखा या असहमति वाला वक्तव्य नहीं दिया।


संकेतात्मक या सीमित मतभेद दिखा — किंतु ‘सिस्टम के भीतर’ ही। कुछ संकेतात्मक घटनाएं मिलती हैं जहाँ यह देखा जा सकता है कि शास्त्री जी की सोच स्वतंत्र थी — लेकिन उन्होंने उसे नेहरू के खिलाफ "विरोध" के रूप में नहीं, बल्कि नरम मतभेद या प्रशासनिक विवेक के रूप में रखा।


रेल दुर्घटना पर इस्तीफा (1956): एक रेल दुर्घटना के बाद जब शास्त्री रेल मंत्री थे, उन्होंने नेहरू के स्पष्ट मना करने के बावजूद स्वेच्छा से इस्तीफा दिया। नेहरू चाहते थे कि वह इस्तीफा न दें क्योंकि यह "व्यवस्था की विफलता" मानी जाएगी, लेकिन शास्त्री ने उत्तरदायित्व का उच्च मानदंड स्थापित किया। हालांकि यह नीति विरोध नहीं, बल्कि नैतिक प्रशासनिक जिम्मेदारी का उदाहरण है।


रेल दुर्घटना पर इस्तीफा देकर शास्त्री जी ने जो फौरी नैतिक उदाहरण प्रस्तुत किया (और ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं उनके), वही उदाहरण नेहरू की विदेश नीति, चीन से युद्ध की विफलता, या भारत की खाद्यान्न नीति की त्रुटियों पर क्यों नहीं दोहराया गया? क्या यह केवल व्यक्तिगत प्रतीकात्मक नैतिकता थी, या उस समय का एक राजनीतिक प्रदर्शन? इससे शास्त्री जी की व्यक्तिगत ईमानदारी और पद से अनासक्ति की झलक जरूर मिलती है, लेकिन क्या एक मंत्री की सिस्टम के सुधार के लिए प्रतिबद्धता भी दिखाई पड़ती है?


युद्ध (1962) और सेना का आधुनिकीकरण: गृह मंत्री के रूप में उन्होंने सुरक्षा और खुफिया तंत्र के सशक्तिकरण की आवश्यकता महसूस की। किन्तु उन्होंने कभी नेहरू की चीन-नीति या पंचशील के अंध-आशावाद का सार्वजनिक विरोध नहीं किया।


खाद्यान्न संकट और हरित क्रांति की पृष्ठभूमि: प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्री ने जो "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया, उसमें खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया — यह नेहरू की केंद्रीकृत खाद्य वितरण नीति से कुछ अलग दिशा थी। लेकिन नेहरू शासन के दौरान शास्त्री इस विषय पर मौन थे।


इतिहास बताता है कि शास्त्री जी नेहरू के कट्टर समर्थक थे, उनकी सोशलिस्ट योजनाओं को सक्रिय रूप से लागू करने वाले मंत्री थे, और कभी भी किसी नीति या विचार पर सार्वजनिक असहमति नहीं जताई।


इसलिए उन्हें ‘नरम आलोचक’ कहना भी अतिशयोक्ति होगी। वे संवेदनशील प्रशासक तो थे, लेकिन वैचारिक विरोधी नहीं।


* कुछ ऐसी बातें जो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती हैं


लाल बहादुर शास्त्री जी के मंत्रीकाल (1951–1964) में कई महत्वपूर्ण निर्णय हुए जिनका नैतिक और विकासात्मक मूल्यांकन करने पर स्पष्ट होता है कि वे यद्यपि "नेहरूवादी" योजना ढांचे के अनुकूल थे, लेकिन जनसरोकारों के प्रतिकूल या दीर्घकालिक दृष्टि से विफल सिद्ध हुए। ये शास्त्री जी की मिनिस्ट्री में नेहरू की नीति के तहत जनविरोधी/विकासविरोधी निर्णय मानें जा सकते हैं जिनका अनुमोदन शास्त्री जी ने किया।


रेलवे में प्राथमिकता असमान:  तब शास्त्री जी रेल मंत्री थे (1951–56):  नई रेल लाइनों का निर्माण मुख्यतः शहरी-केंद्रित रहा। ग्रामीण इलाकों में कनेक्टिविटी उपेक्षित रही। फंड का वितरण और इंफ्रास्ट्रक्चर अपग्रेड मुख्यतः औद्योगिक नगरों और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली क्षेत्रों में केंद्रित था। गाँवों को बाज़ार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा से जोड़ने में रेलवे की भूमिका सीमित रही। इस असमान निवेश ने ग्रामीण-शहरी विभाजन को बढ़ाया। लेकिन यह योजना आयोग की प्राथमिकता औद्योगिक क्षेत्र और उत्पादन केंद्रों पर थी, ग्रामीण भारत की ज़रूरतों पर नहीं।


उपभोक्ता हितों की उपेक्षा और लाइसेंस राज का समर्थन - शास्त्री जी वाणिज्य और उद्योग मंत्री थे(1957–60): उद्योगों और व्यापार के लिए लाइसेंसिंग, परमिट और कोटा प्रणाली को आगे बढ़ाया गया। निजी उपभोक्ताओं के अधिकार, महंगाई और माल की उपलब्धता को राज्य नियंत्रण के नाम पर स्थगित कर दिया गया। इन निर्णयों का जनविरोधी पहलू यह था कि मोनोपॉली और भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप मिला। उपभोक्ताओं को घटिया माल, ऊँचे दाम और कालाबाजारी का सामना करना पड़ा। लेकिन ये निर्णय नेहरू की समाजवादी प्रेरणा में राज्य नियंत्रण और निजी क्षेत्र की अविश्वास की नीति गहराई से जुड़ी थी।


खाद्य वितरण और राशनिंग प्रणाली की अक्षमता - शास्त्री जी गृह मंत्री (1961–63): खाद्यान्न की केन्द्रीय खरीद और वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार, देरी और जमाखोरी के लिए कोई ठोस सुधार नहीं किया गया। यह जनविरोधी था। गरीबों को समय पर अनाज नहीं मिल पाता था, जबकि गोदामों में सरकारी स्टॉक सड़ते रहते थे। राशन दुकानों पर भयंकर कालाबाजारी और घोटाले होते रहे। लेकिन ये नेहरू की नीति के अनुकूल थे। "सेंट्रल प्लानिंग" के तहत स्थानीय स्वायत्तता और फीडबैक मैकेनिज्म को कुचल दिया गया। 


पुलिस राज्य की प्रवृत्ति और नागरिक स्वतंत्रताओं की उपेक्षा - शास्त्री जी के गृह मंत्री काल में सामरिक और आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सीआरपीसी की धाराओं का दुरुपयोग बढ़ा, विशेषकर धारा 144 और निवारक गिरफ्तारी कानूनों का। इसमें राजनीतिक विरोध, मज़दूर आंदोलनों, और क्षेत्रीय असंतोष को दबाने के लिए कानून का प्रयोग हुआ। विशेष रूप से तेलंगाना और बंगाल में छात्र-युवाओं पर बल प्रयोग बढ़ा। लेकिन यह इसलिए हुआ क्योंकि नेहरू का रवैया असहमति के प्रति असहिष्णु था (जैसे कि उन्होंने RSS और कुछ कम्युनिस्टों पर प्रतिबंध लगाए), और शास्त्री जी ने उस रवैये का समर्थन किया।


पंचायती राज का खोखलापन - सामूहिक जिम्मेदारी, गैर-विशिष्ट मंत्रालय, पर शास्त्री जी का समर्थन रहा। इसमें पंचायतों को सत्ता हस्तांतरण के बिना केवल विकास के एजेंट बना दिया गया। ग्रामीण सत्ता  कलेक्टर-प्रधान केंद्रित बनी रही। सामाजिक न्याय और भागीदारी केवल दिखावटी शब्द रह गए। यह नेहरू नीति के अनुकूल था। नेहरू का दृष्टिकोण केंद्रीय योजना के तहत पंचायतों को सहायक संस्था के रूप में देखना था, न कि सत्ता के स्वायत्त केन्द्र के रूप में।


* द्रौपदी चीरहरण और शास्त्रीय चुप्पी


महाभारत में जब द्रौपदी का चीरहरण होता है, तब भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे बुज़ुर्ग और आदर्शवान पुरुष मौन बैठे रहते हैं। वे स्वयं को धर्मात्मा मानते हैं, लेकिन अधर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं देते। शास्त्री जी की चुप्पी भी कुछ-कुछ उसी तरह की है — व्यक्तिगत पवित्रता तो है, पर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध नैतिक विद्रोह नहीं।


* मूल्यांकन के असंगत मापदंड


हमारे इतिहासबोध का सबसे बड़ा संकट यह है कि हम व्यक्तियों को केवल उनके निजी आचरण से आँकते हैं, न कि उनके सार्वजनिक उत्तरदायित्व और नैतिक साहस से।


गांधीजी से लेकर गुलज़ारीलाल नंदा और शास्त्री जी तक, अनेक नेताओं को महानता का दर्जा केवल उनके व्यक्तिगत गुणों के कारण दे दिया गया जबकि उनके राजनीतिक-सामाजिक योगदान और मौन सहमति की आलोचनात्मक समीक्षा नहीं की गई।


नैतिकता की पुनर्समीक्षा आवश्यक है। इसी लिए मेरे स्वर में पारंपरिक मूल्यांकण के लिए विरोध है। आज के भारत में, जहाँ नैतिकता का संकट गहराता जा रहा है, वहाँ यह आवश्यक है कि हम नैतिकता की परिभाषा को पुनः परिभाषित करें।

केवल निजी ईमानदारी नहीं, बल्कि सार्वजनिक अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना, नैतिक साहस दिखाना और गलत का सक्रिय प्रतिरोध करना — यही पूर्ण नैतिकता है।


लाल बहादुर शास्त्री जी भारतीय राजनीति के एक सम्माननीय व्यक्तित्व थे, लेकिन उन्हें ईश्वरतुल्य मानकर उनके राजनीतिक मौन को अनदेखा करना सत्य से भागना होगा। क्या ईमानदारी वह है जो अपने लिए सच्ची हो, या वह जो जन के लिए न्याय की रक्षा करे?

यह प्रश्न न केवल शास्त्री जी पर लागू होता है, बल्कि हर उस "ईमानदार व्यक्ति" पर लागू होता है जो अन्याय के बीच चुप रहता है।


* तो फिर लालबहादुर शास्त्री की  इतनी प्रशंसा क्यों की जाती है?


शास्त्री जी की मृत्यु (जो संभवतः एक साजिश थी) के बाद उन्हें इतना महिमामंडित किया गया कि लोग उनकी मृत्यु की घटना को ही भूल गए। हम इसे "posthumous glorification as political burial" कह सकते हैं — "मरणोपरांत प्रशंसा को स्मृति-विलोपन के औजार की तरह इस्तेमाल करना।"


शास्त्री जी की मृत्यु की परिस्थितियाँ इस संदर्भ में सबसे चौंकाने वाली हैं। कई सवाल उठते रहे हैं।


मृत्यु या हत्या? — शास्त्री जी की रहस्यमय मौत: ताशकंद समझौते के ठीक बाद मौत — जब वे पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बना चुके थे। रात में अचानक दिल का दौरा, लेकिन कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था। पोस्टमार्टम नहीं हुआ — यह सबसे बड़ा संदेह है। परिवार ने माँगा, नहीं किया गया। ब्लू बुक/सुरक्षा लॉग गायब — सुरक्षा एजेंसियों का रिकॉर्ड अधूरा है। उनकी पत्नी और पुत्रों ने सीधे हत्या का संदेह जताया — पर किसी जाँच की अनुमति नहीं मिली। मृत्यु के बाद तत्कालिक सरकार (इंदिरा गांधी की देखरेख में) ने कोई न्यायिक जांच नहीं कराई।


और फिर आया प्रशंसा का तूफ़ान। "जय जवान जय किसान" को इतना प्रचारित किया गया कि ‘जय शास्त्री’ की मांग गौण हो गई। उन्हें "गांधीवादी सादगी का प्रतीक", "त्याग का पुतला", "ईमानदारी की प्रतिमूर्ति" बताकर उनकी छवि को एक स्मारक में बदल दिया गया, लेकिन उनकी मौत की जांच को एक वर्जित विषय बना दिया गया। स्कूलों में उनके बारे में बस यह बताया गया कि वे "बहुत ईमानदार" थे — न कि यह कि उनकी मृत्यु रहस्यमय थी।


यह महिमामंडन दरअसल एक राजनीतिक दफन था। शास्त्री जी का मूल्य उनके जीवन की विचारधारा में था, लेकिन उसे बदला गया एक मूर्ति में, ताकि उनके अंत से उपजा असहज सवाल कभी उठे ही नहीं। यह भारतीय राजनीति की वह गूंगी हत्या थी, जिसमें न शोर था, न विद्रोह। केवल प्रशंसा थी — इतनी अधिक कि सवाल का दम घुट गया।


यह प्रक्रिया दो स्तरों पर देखी जा सकती है:


1. राजनीतिक स्तर पर:


शास्त्री की मौत से जिन लोगों को नीतिगत या नेतृत्विक बाधा हटती दिखी, उन्होंने उनकी प्रशंसा को उनकी अनुपस्थिति की वैधता में बदल दिया।


2. सांस्कृतिक स्तर पर:


भारतीय समाज शहीदों की पूजा करता है, लेकिन सच का अन्वेषण नहीं करता। इसलिए जैसे ही शास्त्री को "त्याग की प्रतिमा" बना दिया गया, लोग उनकी मौत की सच्चाई भूल गए — मानो ईमानदारी से मर जाना ही उनका धर्म था।


इसलिए यह हत्या थी कि नहीं यह अनिर्णीत रहा, लेकिन यह स्मृति का दमन अवश्य था। और वह दमन आज भी जारी है। कोई निष्पक्ष न्यायिक आयोग नहीं बैठा; उनकी मौत पर बात करना अब भी “राजनीतिक असुविधा” मानी जाती है; RTI में जानकारी देने से मना किया जाता है। शास्त्री जी की मृत्यु का यह राजनीतिक रूप से नियंत्रित स्मृति-नियंत्रण भारत के लोकतंत्र की उन कमजोरियों में से है, जो आज भी उजागर नहीं हो पाई हैं।

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आशा है मेरे मित्रगण मुझसे सहमत नहीं होंगे। वे लाइक टीप देंगे। मित्रता निभानी है न। 


जानते हैं, कर्ण ने मित्रता को इतना महत्व दिया था कि दुर्योधन की गलतियों की मक्खियों को शर्बत में मिलाकर सुबह-शाम पीते थे। उन्हें कभी उबकाई नहीं आयी। पीते रहे और पीते-पीते मर गये।

स्वदेशी की छाँह में बंधी अर्थव्यवस्था: बजाज स्कूटर, एम्बेसेडर कार और बहुत कुछ

स्वदेशी की छाँह में बंधी अर्थव्यवस्था: बजाज स्कूटर, एम्बेसेडर कार और बहुत कुछ

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भारत की आर्थिक यात्रा में एक समय ऐसा भी था जब "स्वदेशी" केवल एक नैतिक आदर्श न होकर एक रणनीतिक ढाल बन गया था—जिसके पीछे छिपकर कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों ने भारत की पूरी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था को नियंत्रित किया। बजाज स्कूटर और एम्बेसेडर कार उस युग के दो सबसे प्रबल प्रतीक थे। इनकी कहानी केवल तकनीक या उपभोक्ता उत्पादों की नहीं, बल्कि क्रोनी पूंजीवाद, राजनीतिक संरक्षण और विकल्पहीनता की व्यथा-भरी भारतीय कथा है।


* जमनालाल बजाज: नैतिक पूंजीवाद का आदर्श


जमनालाल बजाज गांधी के निकटतम अनुयायियों में थे। सेवाग्राम आश्रम, हरिजन सेवा, खादी और ग्रामोद्योग के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें एक नैतिक पूंजीपति के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने व्यापार को राष्ट्रसेवा के एक साधन के रूप में देखा। लेकिन जैसे ही सत्ता गांधी के उत्तराधिकारियों के पास आई, उनके उत्तराधिकारी पूंजीपतियों ने गांधी के नाम का व्यापारिक पूंजीकरण शुरू किया।


* बजाज स्कूटर: प्रतीक्षा की सवारी


बजाज ग्रुप ने 1960–70 के दशक में स्कूटर निर्माण शुरू किया। "बजाज चेतक" भारत के मध्यवर्ग का सपना बन गया। पर यह सपना बाज़ार की प्रतिस्पर्धा से नहीं, बल्कि सरकारी संरक्षण और विदेशी आयात पर नियंत्रण के कारण पनपा। बजाज को लाइसेंस, उत्पादन विस्तार और विदेशी साझेदारियों में प्राथमिकता दी गई। एक स्कूटर के लिए 10–15 वर्षों तक प्रतीक्षा करना सामान्य बात थी। (हां, डॉलर में भुगतान करने से अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी।) यह प्रतीक्षा पूंजीवाद की नहीं, क्रोनी व्यवस्था की उपज थी।


* एम्बेसेडर कार: सत्ता की सवारी


बिरला समूह की हिंदुस्तान मोटर्स द्वारा निर्मित एम्बेसेडर कार 1950 के दशक से 2014 तक भारत की सड़कों पर छाई रही। इसकी तकनीक ब्रिटेन की Morris Oxford पर आधारित थी—जो वहां दशकों पहले बंद हो चुकी थी। पर भारत में इसे सरकारी खरीद, मंत्रीगण, नौकरशाही और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त था। भारत में एक समय ऐसा था जब एक साधारण नागरिक के लिए कार का मतलब ही था—"एम्बेसेडर।" यह स्थिति उपभोक्ता की पसंद नहीं, बल्कि राजनीति और पूंजी का गठबंधन थी।


* नेहरू-युगीन आर्थिक दर्शन और उसकी सीमाएँ


1950 और 60 के दशक में भारत की आर्थिक नीतियों को जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी दृष्टि ने निर्देशित किया। योजना आयोग, सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व, भारी उद्योगों पर ज़ोर, और विदेशी पूंजी तथा प्रतिस्पर्धा से बचाव — यह सब नेहरू युग की विशेषताएँ थीं। इस व्यवस्था में वे पूंजीपति ही सफल हो सकते थे जो राज्यसत्ता के निकट हों। यह state-led capitalism था, जिसमें नैतिक स्वतंत्रता नहीं, तकनीकी कौशल नहीं, वरन् राजनीतिक निकटता आर्थिक प्रगति का मार्गदर्शक थी।


एक महत्वपूर्ण उदाहरण है रामकृष्ण डालमिया का। वे वनस्पति घी, सीमेंट, और बीमा जैसे क्षेत्रों में अग्रणी थे। उन्होंने जब वनस्पति घी उत्पादन में विस्तार किया तो यह क्षेत्र नेहरू के प्रिय उद्योगपतियों के हितों के विरुद्ध पड़ने लगा।परिणामस्वरूप डालमिया को सीधा सरकारी प्रतिरोध झेलना पड़ा—उनके करार रद्द किए गए, कानूनी दबाव डाले गए, और अंततः उन्हें जेल तक जाना पड़ा। यह केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेश था कि “जो लाइन में नहीं रहेगा, वह लाइन से बाहर किया जाएगा।”


* डालमिया और संस्थागत विघटन का मामला


रामकृष्ण डालमिया की व्यावसायिक सफलता केवल उत्पादन तक सीमित नहीं थी; उन्होंने Times of India और Bharat Insurance Company जैसी मीडिया और वित्तीय संस्थाओं का नियंत्रण भी प्राप्त किया था। यह स्थिति नेहरू-युगीन राजनीतिक व्यवस्था के लिए असहज थी। भारत के सबसे बड़े अंग्रेज़ी दैनिक पर डालमिया का नियंत्रण, एक ऐसे समय में जब सरकार मीडिया पर नैतिक अनुशासन चाहती थी, उन्हें सत्ता की आँख की किरकिरी बना गया। डालमिया पर वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम किया गया और Times of India को बाद में 'ट्रस्ट' में परिवर्तित कर सरकारी नियंत्रण की ओर मोड़ा गया। इसी प्रकार Bharat Insurance को भी LIC के गठन के साथ जबरन समाहित किया गया।


यह मामला दिखाता है कि वित्त और सूचना पर निजी नियंत्रण को राज्य सत्ता का अपवित्र अतिक्रमण समझा गया और उसे कुचलने में कोई संकोच नहीं किया गया।


* रणनीतिक राष्ट्रीयकरण और निजी पूंजी का पुनर्संयोजन


इसी कड़ी में यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ प्रमुख निजी क्षेत्रों का योजनाबद्ध रूप से राष्ट्रीयकरण किया गया—जिनमें एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस, एअरपोर्ट्स अथॉरिटी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स, और प्रमुख जहाज़रानी कंपनियाँ शामिल थीं।


टाटा समूह की एयरलाइन को राष्ट्रीयकरण कर भारतीय विमानन का "जनकल्याणकारी" मॉडल बनाया गया, पर इसमें राजनीतिक प्रतिशोध की गंध स्पष्ट थी।


हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स जैसी उभरती हुई निजी संस्थाओं को रक्षा-क्षेत्र के नाम पर सरकारी नियंत्रण में लिया गया।


स्वतंत्र निजी पोर्ट ऑपरेशनों को हतोत्साहित कर शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया जैसी सार्वजनिक संस्थाओं को वरीयता दी गई।


इन उपायों को सार्वजनिक हित के नाम पर प्रस्तुत किया गया, पर व्यवहार में ये अधिकतर दंड या राजनीतिक correctives और राजकीय प्रभुत्व की पुनःस्थापना का हिस्सा थे।


इसी संदर्भ में टाटा, वालचंद और लोहिया समूह जैसे औद्योगिक घरानों का अनुभव उल्लेखनीय है।


टाटा समूह, जिसने विमानन, इस्पात और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से पहल की थी, को सरकारी नियंत्रण और नौकरशाही की कठोरता का सामना करना पड़ा।


वालचंद हीराचंद, जिन्होंने Hindustan Aircraft और Scindia Shipyard जैसे कई महत्त्वाकांक्षी उपक्रम खड़े किए, को योजनाबद्ध तरीके से हाशिये पर डाल दिया गया। उनकी एयरोनॉटिक्स परियोजनाओं को बाद में HAL के रूप में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।


लोहिया समूह, जो उत्तर भारत में उभरता हुआ स्वतंत्र पूंजीवादी उद्यम था, को 'राजनीतिक गैर-अनुकूलता' के कारण विकास का वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला जैसा कुछ अन्य मित्रवत घरानों को मिला।


यह सब दर्शाता है कि नेहरू-कालीन योजनात्मक अर्थव्यवस्था में औद्योगिक सफलता का मानदंड नवाचार या दक्षता नहीं था, बल्कि राजनीतिक संरेखण और विचारधारात्मक अनुरूपता था।


* क्रोनी पूंजीवाद: स्वदेशी के नाम पर विकल्पहीनता


भारत के औद्योगिक विकास को जब "स्वदेशी" की भाषा में ढाला गया, तो वह प्रतिस्पर्धा और नवाचार से कट गया। बजाज और बिरला जैसे घरानों को नैतिक चादर ओढ़ाकर नीति-निर्माताओं से विशेष सुविधाएँ दिलाई गईं। विदेशी कंपनियों को बाज़ार में प्रवेश नहीं मिल सका। आयात शुल्क इतने ऊँचे रखे गए कि उपभोक्ता के पास स्थानीय उत्पाद ही विकल्प थे। गुणवत्ता, डिज़ाइन और सेवा को अनदेखा किया गया।


इसका परिणाम यह हुआ कि भारत का मध्यवर्ग चुपचाप सरकारी पूंजीवाद के अधीन हो गया।


* 1991: जब प्रतिस्पर्धा की हवा बही


उदारीकरण के बाद जापानी व कोरियाई टू-व्हीलर (हीरो होंडा, टीवीएस-सुजुकी) और चारपहिया (मारुति, हुंडई) ने बाज़ार में प्रवेश किया। बजाज ने खुद को मोटरसाइकिल की ओर मोड़ा और अंततः स्कूटर निर्माण बंद कर दिया। एम्बेसेडर कार अपनी जड़ता के कारण 2014 में बंद कर दी गई।


* यह सब अकथ कहानी


क्रोनी पूंजीवाद का वह युग, जो स्वदेशी की आत्मा का दोहन कर रहा था, नये रूप लेने को मजबूर हुआ। परंतु यह नया रूप केवल बाज़ार का नहीं, नैतिकता का भी है, जिसने पूंजी को राजनीति का स्थायी साथी बना दिया है। बजाज स्कूटर और एम्बेसेडर कार के नाम से कही यह कहानी केवल यांत्रिक विफलताओं की नहीं, बल्कि राजनीति, अर्थनीति और नैतिकता के त्रिकोणीय संघर्ष की है। गांधी के नाम पर बनी आर्थिक संरचनाएँ अंततः उन्हीं मूल्यों के विपरीत खड़ी हो गईं, जिन्हें वे पोषित करने का दावा करती थीं। यह इतिहास हमें यह सिखाता है कि “स्वदेशी” जब तक नैतिक विवेक और सार्वजनिक जवाबदेही से जुड़ा न हो, तब तक वह मात्र एक छलावा बन जाता है — क्रोनी पूंजीवाद का सुशोभित आवरण।

कबीर ने कहा था:

हिंदु की दया मेहर तुरकन की दोनों घर से भागी।

वह करै जिबह वाँ झटका मारै आग दोऊ घर लागी।

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मित्रगण! मोरे अवगुन चित न धरौ।


(भारत में तकरीबन पचास छोटे-बड़े औद्योगिक घराने या बिजनेस ग्रुप्स हैं। कुछ पुराने, कुछ नये भी। इनका इतिहास बहुत ही आकर्षक और ज्ञानवर्धक है। इनको पढ़े बिना कोई भारतीय अर्थशास्त्र नहीं समझ सकता। हां, इतना ही काफी नहीं है। यह भी समझना होगा कि सरकारों ने किस तरह ग्रामीण सेक्टर और श्रम बाजार को गुलाम बनाया है। मेरा विश्वास कीजिए, यह गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी है।)

Air India और Indian Airlines की कहानी: एक सरकारी कुचक्र और प्राइवेट मैनेजमेंट की कहानी (शुरू से हालिया प्लेन क्रैश तक)

Air India और Indian Airlines की कहानी: एक सरकारी कुचक्र और प्राइवेट मैनेजमेंट की कहानी (शुरू से हालिया प्लेन क्रैश तक)

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Ahmedabad में 12 जून 2025 को  Air India फ्लाइट AI 171  (एक Boeing 787‑8 Dreamliner (VT‑ANB)), London‑Gatwick के लिए टेकऑफ़ के तुरंत बाद दुर्घटनाग्रस्त हो गया। पूरा देश शोकाकुल है। 


बहुत लोग बहुत कुछ कहेंगे, लिखेंगे। लेकिन मुझे भी कुछ कहना है। एक कहानी। बस एक कहानी। तो सुनिये।


* प्रारंभिक युग: जब सपना आसमान में था (1932–1953)


1932 में J.R.D. टाटा ने Tata Airlines की स्थापना की थी — एक निजी भारतीय पहल जिसने कराची से मद्रास तक डाक और यात्रियों की सेवा दी। ये भारतीयों द्वारा शुरू की गई पहली एयरलाइन थी।


1946 में Tata Airlines का नाम बदलकर Air India कर दिया गया।


1948 में भारत सरकार और टाटा समूह ने मिलकर Air India International की शुरुआत की, जिसमें सरकार की 49% हिस्सेदारी थी।


J.R.D. टाटा का विजन, उत्कृष्टता के लिए प्रतिबद्धता और सेवा की गुणवत्ता उस युग की पहचान थी। यह एक ऐसा दौर था जब भारत की एयरलाइन दुनिया में प्रतिष्ठित मानी जाती थी।


* राष्ट्रीयकरण का कुचक्र (1953–1990)


1953 में, भारत सरकार ने Nehruvian समाजवाद की नीति के तहत Air India और सभी निजी एयरलाइनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।

इसके दो हिस्से बने:


Air India International: अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए


Indian Airlines Corporation (IAC): घरेलू और क्षेत्रीय उड़ानों के लिए


J.R.D. Tata को चेयरमैन बनाकर दिखावटी निजीपन बनाए रखा गया, परंतु निर्णय सरकार के हाथ में था।


धीरे-धीरे राजनीतिक दखल, नौकरशाही अक्षमता, नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद और सुस्त निर्णय प्रक्रिया ने Air India की विश्वसनीयता को क्षीण कर दिया।


* उदारीकरण के झटके और निजी प्रतियोगिता (1991–2006)


1991 के बाद, जब भारत ने अर्थव्यवस्था खोलनी शुरू की, तब:


निजी कंपनियाँ (Jet Airways, Sahara, आदि) उभरने लगीं


Air India और Indian Airlines की पुरानी कार्यप्रणाली चरमराने लगी; घाटा बढ़ता गया, स्टाफ अनुपात अत्यधिक हो गया। सेवा गुणवत्ता गिरने लगी, टाइम पर उड़ानें कम हुईं, कर्मचारी असंतुष्ट होने लगे, लेकिन सरकार सब्सिडी देती रही।


* विवादास्पद विलय और भारी नुकसान (2007–2017)


2007 में, एक विवादास्पद निर्णय के तहत Air India और Indian Airlines का विलय कर दिया गया।


दो अलग संस्कृति, दो HR संरचनाएँ, दो वित्तीय संकट — और एक राजनीतिक दबाव में लिया गया निर्णय। इसके साथ ही UPA सरकार के समय 111 नए विमान का ऑर्डर दिया गया जिसकी लागत ₹55,000 करोड़ थी — जबकि एयरलाइन पहले से घाटे में थी।


इसके परिणाम विध्वंसक थे। Air India का कर्ज पहाड़ जैसा हो गया। 2007–2017 के बीच एयरलाइन को ₹50,000 करोड़ से अधिक की सरकारी सहायता देनी पड़ी। कर्मचारियों में असंतोष, हड़तालें, टेक्निकल खराबियाँ और विश्वासघात की भावना घर कर गई


* निजीकरण की दिशा में वापसी (2017–2021)


मोदी सरकार ने Air India को बेचने का निर्णय लिया। 2018 में पहली बार बोली खुली, कोई खरीदार नहीं आया। 2020–21 में फिर से प्रक्रिया शुरू हुई, इस बार सरकारी कर्ज को कम करके (₹60,000 करोड़ में से ₹46,000 करोड़ SPV में ट्रांसफर किया गया)


* टाटा की घर वापसी: निजी प्रबंधन की पुनःस्थापना (2022–वर्तमान)


जनवरी 2022 में, Tata Sons ने ₹18,000 करोड़ में Air India का अधिग्रहण किया, जिसमें ₹2700 करोड़ नकद भुगतान, ₹15,300 करोड़ का कर्ज लिया गया, टाटा समूह के अधिग्रहण के बाद CEO Campbell Wilson की नियुक्ति हुई। Vistara, AirAsia India और Air India का एकीकरण शुरू हुआ। नई ब्रांडिंग, विमानों का नवीकरण, डिजिटलीकरण और ग्राहक सेवा सुधार और निजी क्षेत्र की दक्षता, तकनीकी निवेश और वैश्विक मानकों की वापसी की कोशिशें हुईं।


* लेकिन मूल समस्याएँ अभी भी बरकरार हैं। सरकारी कुचक्र बनाम निजी उत्तरदायित्व का द्वन्द्व गलाघोंटू है। निर्णय लेने में देरी, राजनीतिक नियुक्तियाँ, घाटे में चलने पर भी चुनावी कारणों से फैसले, प्रतिस्पर्धा की अक्षमता की अनेक कहानियां हैं।


निजी प्रबंधन दक्षता और गति, बाजार के अनुसार निर्णय, ग्राहक-केंद्रितता, जवाबदेही और दीर्घकालिक दृष्टि से काम करना चाहता है लेकिन इसके लिए political support नहीं है।


Air India अब एक बार फिर निजी हाथों में है — उसी टाटा समूह के पास जिसने इसकी शुरुआत की थी। लेकिन क्या वह नौकरशाही विरासत को पीछे छोड़ पाएगी? क्या टाटा समूह Jet Airways की तरह हतोत्साहित नहीं होगा? क्या भारतीय यात्री अब वाकई विश्वस्तरीय सेवा देख पाएंगे?


तो कल की दुर्घटना मात्र कल की दुर्घटना नहीं है। यह एक इशारा है। यह भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की त्रासदी और निजी प्रबंधन की संभावनाओं का प्रतीक है। यह एक दृष्टिहीन समाजवादी प्रयोग से उभरी एक थकी हुई आत्मा की पुनर्जीवित उड़ान है — जो यह दिखाती है कि भारत में सपना तब तक मरता नहीं जब तक उसे उड़ान भरने की स्वतंत्रता मिले।


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नेहरू काल से ही आर्थिक नीतियों के पीछे कितनी देशहित भावना थी, कितना crony-ism  था, कितना व्यक्तिगत अहंकार था, कितनी शक्तिपूजा थी, कितना प्रतिशोध था,  इसपर मौका मिला तो कभी लिखूंगा। बनेगी तो पूरी किताब। 


"गंदी गलियों से गुजरते आर्थिक विकास की कहानी"।

रीढ़विहीन बौद्धिक वर्ग का निर्माण: नेहरूवादी नीतियाँ और उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय मन

रीढ़विहीन बौद्धिक वर्ग का निर्माण: नेहरूवादी नीतियाँ और उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय मन

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पहले अपनी बात: Gunnar Myrdal ने अपनी पुस्तिका 'Objectivity in Social Research (1969) में स्पष्ट लिखा है कि सामाजिक विज्ञान पर लेख में लेखक वस्तुनिष्ठ नहीं रह सकता। उसकी एक विचारधारा होगी। वह ईमानदार है तो अपनी विचारधारा के रुझान को खुलेआम सामने रख कर आगे बढ़ेगा। इसलिए मेरी धारणा को जानना जरूरी है। मैं लगभग 1966 से ही अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा। सैद्धांतिक अर्थशास्त्र और भारतीय अर्थशास्त्र के बीच की दूरी मुझे हमेशा  हतबुद्धि करती रही। मुझे यह समझ में नहीं आता था कि भारतीय अर्थशास्त्र सचमुच में आर्थिक विश्लेषण है या 'सरकार ने यह किया और वह किया' की कहानी है, apologia है। लगातार फेल होती हुई योजनाओं की समीक्षा भी मुझे बनावटी लगती थी। मुझे लगता था कि हम और हमारे पुस्तकों के लेखक ईमानदार नहीं हैं। यही बीज है इस लेख का।


मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता के पश्चात भारत में बौद्धिक वर्ग के संरचनात्मक और वैचारिक परिवर्तन की विवेचना आवश्यक है। यह सोचना ज़रूरी है कि किस प्रकार नेहरूवादी नीति ने अपने सांख्यिकीय, तकनीकी और धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के माध्यम से बौद्धिक स्वायत्तता को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभायी। मेरा मानना है कि उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता की ओर संक्रमण के दौरान, आलोचनात्मक बौद्धिकता की जगह संस्थागत समर्पण ने ले ली, और सरकारी नीति ने सत्य के पक्षधर विचारकों को राज्य-आश्रित ज्ञान-कर्मियों में बदल दिया। परिणामस्वरूप एक ऐसा बौद्धिक वर्ग पैदा हुआ जो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय, सांस्कृतिक रूप से अलग-थलग और नैतिक रूप से निस्तेज हो गया।


I. एक मौन वर्ग का रहस्य


प्रायः प्रगतिशील लोकतंत्रों में बौद्धिक वर्ग—लेखक, विद्वान, कलाकार और सार्वजनिक चिंतक—समाज की अंतरात्मा का कार्य करते हैं। वे सत्ता से प्रश्न करते हैं, अन्याय को उजागर करते हैं, और यथार्थ तथा विचारधारा के बीच सेतु का निर्माण करते हैं। किंतु भारत में स्वतंत्रता के बाद यह भूमिका उलट गई। वह वर्ग, जिसने कभी स्वतंत्रता संग्राम का बौद्धिक नेतृत्व किया था, स्वतंत्रता के उपरांत बौद्धिक रूप से निष्क्रिय और नैतिक रूप से दुर्बल हो गया। इस लेख में मैं पूछता हूं: ऐसा क्यों हुआ? और इस प्रक्रिया में नेहरू की नीतियों की क्या भूमिका रही? और  अपनी समझ से उत्तर भी देता हूं।


II. औपनिवेशिक विरासत और पूर्व-स्वतंत्रता बौद्धिक सक्रियता


औपनिवेशिक काल में भारत के शिक्षित वर्ग में गहन नैतिक और राजनीतिक बेचैनी थी। राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, भीमराव आम्बेडकर और महात्मा गांधी जैसे विचारकों ने न केवल औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी बल्कि वे देश के आंतरिक सामाजिक दोषों से भी जूझे। उनके लिए शिक्षा केवल सामाजिक स्थिति प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि मुक्ति और पुनर्रचना का उपकरण थी।


शिक्षण संस्थानों में सीमित संसाधनों के बावजूद, वैचारिक स्वतंत्रता और आलोचनात्मक आत्म-समीक्षा के लिए स्थान था। उस समय का बौद्धिक एक विद्रोही था, जो सत्य के लिए अपने सुख-आराम को त्यागने को तैयार था।


III. स्वतंत्रता के बाद की दिशा: आलोचना से अनुकूलन की ओर


1947 के बाद एक मूलभूत परिवर्तन घटित हुआ। ब्रिटिश राज्य, जो कभी आलोचना का लक्ष्य था, अब 'अपना' राज्य बन गया। सत्ता और ज्ञान के बीच की दूरी समाप्त हो गई। नई भारतीय राज्य-व्यवस्था ने नौकरी, अनुदान, पुरस्कार और प्रतिष्ठा के रूप में बौद्धिकों को अपनी छाया में ले लिया।


परिणामस्वरूप, असहमति के स्थान पर सहमति को प्राथमिकता मिली, विश्वविद्यालय जीवन में नौकरशाही का वर्चस्व हुआ, बौद्धिक कार्य अब आलोचना नहीं, बल्कि योजनाबद्ध 'समाधान' बन गया।


IV. नेहरूवादी नीति और बौद्धिक सह-अनुकरण


नेहरू की आधुनिक, 'नेहरूवियन' धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील दृष्टि अपने आप में नवीन और आकर्षक थी। परंतु इसकी कुछ अनचाही परिणतियाँ भी हुईं, विशेष रूप से बौद्धिक वर्ग की वैचारिक स्वतंत्रता के क्षरण में। निम्नलिखित चार बिंदु इस प्रक्रिया में निर्णायक रहे:


1. राज्यवाद और संस्थागत अधिग्रहण: नेहरू का विश्वास था कि प्रगति का प्रमुख माध्यम राज्य ही है। इस कारण ज्ञान का अधिकांश उत्पादन राज्य-नियंत्रित निकायों (UGC, ICSSR, सरकारी विश्वविद्यालय) द्वारा संचालित हुआ। बौद्धिकों की पदोन्नति, मान्यता और रोजगार राज्य पर निर्भर हो गई। परिणामस्वरूप वैचारिक आज़ादी बाधित हुई।


2. तकनीकीकरण बनाम चिंतन: फैबियन समाजवाद के प्रभाव में पांच वर्षीय योजनाओं और तकनीकी प्रबंधन पर बल दिया गया। दार्शनिक, कवि और सांस्कृतिक समीक्षक पीछे हट गए और अर्थशास्त्री, योजनाकार और वैज्ञानिक केंद्र में आ गए। जो कवि और लेखक थे, वे, तकरीबन सभी, सत्ता की विचारधारा के हिमायती बन गये। आलोचना की जगह आंकड़ों ने ले ली।


3. ऊपर से थोपे गए धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विच्छिन्नता: नेहरू की धर्मनिरपेक्षता ने भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता को अक्सर 'प्रतिक्रियावादी' कहकर नकार दिया। धर्म, परंपरा, और लोक-ज्ञान की वैकल्पिक व्याख्याएँ अस्वीकार्य घोषित कर दी गईं। इससे एक 'विचारधारा-निर्मित धर्मनिरपेक्षता' का निर्माण हुआ, जो बौद्धिकों को एक सांचे में ढालता था।


4. अंग्रेजी-केंद्रितता और जनता से दूरी: अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा को प्रगति का प्रतीक मानते हुए, भारतीय बौद्धिक वर्ग को अपनी ही संस्कृति और जन-जीवन से काट दिया गया। वह वर्ग जो ऑक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज में सहज था, गाँव और कस्बों के अनुभवों से अपरिचित हो गया।


V. दीर्घकालिक परिणाम: संस्थागत और नैतिक पतन


इस नीति-परिवेश के परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय नौकरशाही के अड्डे बन गए,

मीडिया सत्ता के प्रचारक बन गए, साहित्य और कला ने अपने राजनीतिक स्वभाव को खो दिया, सार्वजनिक विमर्श संकीर्ण, तकनीकी और विचारहीन हो गया।


बुद्धिजीवी अब अपने करियर की चिंता में मौन साधने लगे। मौन, सुरक्षा का पर्याय बन गया और समरूपता, सफलता का।


VI. 'सजीव' से 'अनुचर' बौद्धिकता तक की यात्रा


एंटोनियो ग्राम्शी ने 'सजीव बौद्धिक' (organic intellectual) और 'परंपरागत बौद्धिक' (traditional intellectual) के बीच अंतर किया था। स्वतंत्रता के बाद भारत में पहले वर्ग का ह्रास और दूसरे का संस्थानीकरण हुआ।


नेहरूवादी ढाँचा, अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद, एक स्वतंत्र बौद्धिक वर्ग को विकसित नहीं कर पाया। इसके बजाय एक 'सरकारी विचारक' वर्ग उत्पन्न हुआ—शिक्षित, वक्ता, और पदलाभी/पदलोभी, परंतु नैतिक रूप से निर्बल और सांस्कृतिक रूप से अनगढ़।


VII. स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक पाखंड


यह कहना  बौद्धिक रूप से तार्किक है कि स्वतंत्र भारत में जिन मूल्यों और आदर्शों—समाजवाद, लोकतंत्र, और धर्मनिरपेक्षता—का सार्वजनिक रूप से प्रचार हुआ, वे अक्सर केवल प्रतीकात्मक या दिखावटी रहे हैं। इनका वास्तविक व्यवहार और प्रभाव अनेक बार राजनीतिक पाखंड (hypocrisy) में बदल गया। 


i). समाजवाद का पाखंड: योजनाबद्ध पूंजीवाद का आवरण


आधिकारिक दावा: स्वतंत्र भारत ने 'समाजवादी विकास प्रतिरूप' को अपनाया, जिसका उद्देश्य समानता और न्यायसंगत संसाधन वितरण था। लेकिन वास्तविकता यह थी कि राज्य स्वयं एक विशेषाधिकारयुक्त पूंजीपति बन गया। नियोजन और लाइसेंस-परमिट राज के माध्यम से चुनिंदा औद्योगिक घरानों को विशेष संरक्षण मिला (जैसे बजाज, बिड़ला)। अगर किसी को रुचि हो तो वह आजादी के बाद प्रमुख औद्योगिक घरानों (तकरीबन 20-25 मुख्य औद्योगिक ग्रुप्स) का विकास और उनके सत्ता के संबंधों का विश्लेषण करे। दूसरी तरफ, ग्रामीण और श्रमिक वर्ग की वास्तविक शक्ति-वृद्धि नहीं हुई, बल्कि सत्ता और संसाधनों पर धनाढ्यों का कब्ज़ा और मज़बूत हुआ। शिवचन्द्र झा ने इसे 'समाजवाद की आड़ में पूंजीवाद की उन्नति' बताया। अशोक रूद्र ने बौद्धिक वर्ग को इस पूंजीवादी साज़िश का 'सहयोगी' बताया।


ii). लोकतंत्र का पाखंड: चुनावी औपचारिकता, जन-सहभागिता नहीं


भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है—यहाँ आम मताधिकार और नियमित चुनाव होते हैं। लेकिन‌ वास्तविकता यह है कि लोकतंत्र केवल मतदान तक सीमित हो गया है। जनता की नीति निर्माण में कोई ठोस भागीदारी नहीं होती। संसद में बहस और विमर्श कमजोर हुए हैं; सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है। संसद की बैठकें बहुधा तमाशे की तरह होते हैं। फलतः आम नागरिक प्रशासन से विमुख हो गया है। राजनीति पर जाति, धनबल और बाहुबल हावी हो गए हैं।


iii). धर्मनिरपेक्षता का पाखंड: राज्य की छद्म तटस्थता


भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जो सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखता है।


लेकिन वास्तविकता यह है कि राज्य ने कभी तो धर्मनिरपेक्षता को चयनित पक्षपात का जरिया बना लिया, कभी मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथ में लिया, तो कभी अल्पसंख्यकों को तुष्टीकरण के माध्यम से राजनीतिक लाभ हेतु उपयोग किया। वोट बैंक राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता को नीति की जगह रणनीति बना दिया। परिणाम यह हुआ है कि समाज में वास्तविक सांप्रदायिक सौहार्द नहीं बन पाया। धार्मिक पहचानें राजनीति का उपकरण बन गईं। आदर्शों की आड़ में व्यवस्था का यथार्थ यह है कि स्वतंत्र भारत की बौद्धिक-राजनीतिक प्रणाली ने आधुनिकता के महान आदर्शों को केवल वैचारिक आवरण की तरह अपनाया, परंतु उनका वास्तविक कार्यान्वयन शक्तिसंपन्न वर्गों के हित में हुआ। समाजवाद ने पूंजीवाद को संरक्षण दिया, लोकतंत्र ने जनविमुख शासकीय केंद्रीकरण को जन्म दिया, और धर्मनिरपेक्षता ने सांप्रदायिक राजनीति को बल दिया।


इसलिए यह कहना तथ्यपरक और ऐतिहासिक रूप से सुसंगत है कि भारत में स्वतंत्रता के बाद जो कुछ भी घोषित किया गया—वह अधिकांशतः राजनीतिक पाखंड था, न कि सच्चे सामाजिक परिवर्तन की परियोजना।


VIII. अर्थशास्त्र और राजनीति से हटकर हिंदी साहित्य और आलोचना की बात


मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूं  कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में होने वाले रिसर्च में भक्तिकाल पर बहुत जोर दिया गया। भक्तिकाल को हिंदी साहित्य में 'स्वर्ण युग' के रूप में प्रतिष्ठित किया गया — तुलसी, कबीर, सूर, मीराबाई जैसे संत-कवियों को ‘लोकभाषा’ और ‘लोक-आस्था’ के प्रतिनिधि मानकर। कारण यह है कि नेहरू युगीन राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया को एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा चाहिए थी जो हिंदू-मुस्लिम संवाद, धर्मनिरपेक्षता, समन्वय, और जनता की आवाज के प्रतीक रूप में प्रस्तुत की जा सके। भक्तिकाल का विमर्श इन सभी मूल्यों को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत करता था — इसलिए यह एक सुविधाजनक अतीत बन गया। नेहरू युग में संस्कृति को राज्य प्रायोजित उदार आधुनिकता की भाषा में पुनर्गठित किया गया। संस्थाएं बनीं — साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) आदि। हिंदी विभागों के लिए UGC और विश्वविद्यालयों की ओर से अनुदान, शोध विषयों की अनुशंसा, और पीएचडी की स्वीकृति — ये सब एक सांस्कृतिक प्राथमिकता निर्धारण के तहत चलने लगे। ऐसे में भक्तिकाल पर शोध राज्य-सम्मत 'सुरक्षित क्षेत्र' बन गया — न वह विद्रोही था, न साम्यवादी, न जातीय उभार का प्रतिनिधि। कबीर या रविदास जैसे कवियों में गहन सामाजिक आलोचना है, पर विश्वविद्यालयीय विमर्श ने उन्हें 'अध्यात्मिक लोककवि' तक सीमित कर दिया। उनके सामाजिक प्रतिरोध को भाषाई, प्रतीकात्मक या तात्विक विमर्श बना दिया गया — जिससे व्यवस्था को कोई खतरा न हो।


भक्तिकाल एक तरह का वैचारिक निष्क्रियता क्षेत्र बन गया। हिंदी विभागों में जब वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक विरोधाभासों पर शोध टाला जाने लगा, तब भक्तिकाल एक ऐसा क्षेत्र बना जहाँ "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" बनी रहे, पर वास्तविक सामाजिक हस्तक्षेप न हो। यह नेहरू युग की बौद्धिक 'फील्ड-मैनेजमेंट' नीति का हिस्सा था — जिसमें साहित्य को परंपरा का वाहक बना दिया गया, न कि संघर्ष का मंच। इस तरह हिंदी विभागों में भक्तिकाल पर अत्यधिक शोध राज्य-प्रायोजित सांस्कृतिक नीति के अंतर्गत एक 'नियंत्रित अतीत' का निर्माण है। यह अतीत ऐसा था जिसमें असहमति को संतुलित रूप में दिखाया जा सके, और वर्तमान व्यवस्था से टकराव न हो। ध्यातव्य है कि हिंदी जनमत निर्माण के लिए बहुत सशक्त भाषाई उपकरण है।


यह सब दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। यदि भारत को फिर से बौद्धिक पुनर्जागरण की ओर ले जाना है, तो उसे फिर से उस आत्मसमीक्षक, जनसंपृक्त और नैतिक रूप से प्रतिबद्ध बौद्धिकता को जीवित करना होगा, जो कभी उसकी आत्मा थी। जब तक यह नहीं होता, भारतीय बौद्धिक वर्ग एक 'साक्षर श्रमिक' बना रहेगा—जानकारी से भरपूर, पर रीढ़विहीन।

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Helpful Readings:


1. Antonio Gramsci, Selections from the Prison Notebooks.

International Publishers, New York, 1971.

– A foundational text on the theory of cultural hegemony and the role of intellectuals in society.


2. Partha Chatterjee, The Nation and Its Fragments: Colonial and Postcolonial Histories.

Princeton University Press, Princeton, NJ, 1993.

– Explores how Indian nationalism shaped and fragmented the postcolonial intellectual landscape.


3. Ashis Nandy, The Intimate Enemy: Loss and Recovery of Self Under Colonialism.

Oxford University Press.  Second edition (reprint): 2009.  

– Analyzes how colonialism shaped the Indian psyche and created a new class of deracinated intellectuals.


4. Shiv Visvanathan, Organizing for Science: The Making of an Industrial Research Laboratory. Oxford University Press (Delhi), 1985.

– A critical work on how Indian science and knowledge institutions were shaped by bureaucratic rationality.


5. André Béteille, The Idea of Indigenous Scholarship. Current Anthropology, 39(2),1998.  

– Discusses the importance of autonomy and rootedness in intellectual inquiry in India.


6. M.K. Gandhi, Hind Swaraj or Indian Home Rule

Navajivan Publishing House, Ahmedabad,1938.

– A civilizational critique of modernity, machinery, and the Western model of education and politics.


7. Jawaharlal Nehru, The Discovery of India

The Signet Press, Calcutta, 1946.

– Nehru’s magnum opus reflecting his vision of Indian history, culture, and modern nation-building.


8. T.K. Oommen, Knowledge and Society: Situating Sociology and Social Anthropology.

Oxford University Press, 2007.

– Contextualizes the institutional evolution of Indian social sciences in post-independence India.


9. Ashok Rudra, Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, Economic and Political Weekly, 24(3), 1989.  

– Rudra critically examines how India's intelligentsia—academics, planners, bureaucrats—came to function not merely as critics or observers, but as collaborators of power and capitalism. He analyzes their transformation into a quasi-ruling class intricately linked with industrial and state interests, especially during the post-independence era.


10. Shiv Chandra Jha,

Studies in the Development of Capitalism in India (1963), Firma K.L. Mukhopadhyay, Calcutta .

– In this significant work, Jha analyzes how the post-independence socialist pattern of planning in Nehruvian India functioned less as a break from capitalism and more as a strategic pathway facilitating its growth. He critically argues that state-led planning and socialist rhetoric often masked the deeper integration of the intelligentsia and state institutions into capitalist modernity—thus enabling capitalist expansion rather than containing it.

लज्जा बनाम अपराधबोध: भारत और पश्चिम के नैतिक मानस का सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

लज्जा बनाम अपराधबोध: भारत और पश्चिम के नैतिक मानस का सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

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हर समाज अपने नागरिकों में नैतिक अनुशासन बनाए रखने के लिए कोई न कोई मनोवैज्ञानिक तंत्र विकसित करता है। यह तंत्र व्यक्ति के अंदर "सुपर ईगो" (Super-Ego) यानी नैतिक अनुशासन की सत्ता को जन्म देता है, जो उसे अनुचित व्यवहार के विरुद्ध चेतावनी देता है। किंतु यह चेतावनी हर समाज में एक जैसी नहीं होती। भारत जैसे सामूहिक समाज में यह चेतावनी 'लज्जा' (shame) के रूप में प्रकट होती है, जबकि पश्चिमी देशों में यह 'अपराधबोध' (guilt) के रूप में—जिसे Freudian दृष्टिकोण से आत्मा का आत्म-विकसित न्यायाधीश माना जा सकता है।


यह लेख इस अंतर को केवल मनोवैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर समझने का प्रयास है।


1. लज्जा-संस्कृति और अपराधबोध-संस्कृति: बुनियादी भेद


लज्जा-संस्कृति (shame culture) में नैतिकता बाहरी निगाह से संचालित होती है—“लोग क्या कहेंगे?”, “समाज में बदनामी हो जाएगी।” व्यक्ति तब तक सुरक्षित है जब तक उसकी ग़लती सामने नहीं आती। लज्जा-संस्कृति का नियंत्रण सामाजिक मान्यता और प्रतिष्ठा पर आधारित होता है।


अपराधबोध-संस्कृति (guilt culture) में नैतिकता अंतरात्मा की निगाह से संचालित होती है—“मैंने जो किया वह सही नहीं था, भले ही कोई देखे या न देखे।” व्यक्ति स्वयं को उत्तरदायी मानता है, और सामाजिक या धार्मिक व्यवस्था उसकी आत्मालोचना को दिशा देती है।


2. धार्मिक जड़ें: शुद्धि बनाम प्रायश्चित


भारत में धर्म (विशेषतः ब्राह्मणवादी परंपरा) नैतिकता को कर्मकांड और जातिगत आचारों में बाँधता रहा। किसी "पाप" के बाद आत्म-स्वीकृति या आत्मग्लानि की नहीं, बल्कि दान, व्रत, स्नान, तर्पण आदि जैसी बाहरी शुद्धि विधियों की अपेक्षा की जाती रही।


इसके विपरीत, ईसाई परंपरा (विशेषतः कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट शाखाएँ) में पाप एक व्यक्तिगत नैतिक संकट होता है, जिसकी मुक्ति केवल confession, प्रायश्चित, और अंतर्मुखी पश्चाताप से ही संभव है। यहाँ ईश्वर के साथ संबंध व्यक्तिगत और नैतिक होता है।


3. सामाजिक संरचना: सामूहिकता बनाम व्यक्तिगत उत्तरदायित्व


भारत का समाज जातिगत, पारिवारिक और परंपरा-केंद्रित रहा है। इसमें व्यक्ति की नैतिकता व्यक्तिगत नहीं बल्कि जातिगत/सामूहिक मर्यादाओं में ढली होती है। कोई ग़लती यदि कुल, जाति या समाज के सामने न आए तो वह "ग़लती" मानी ही नहीं जाती।


पश्चिम में व्यक्ति स्वतंत्र सत्ता माना जाता है—उसकी ज़िम्मेदारी, उसका विवेक, और उसकी नैतिकता निजी होती है। शिक्षा, न्याय और राजनीति सब उसी दिशा में बढ़े।


4. इगो, सुपर ईगो और सांस्कृतिक विकास


Freud के अनुसार, Super-Ego यानी "मनोविज्ञानी नैतिक सत्ता" हमारे समाजीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न होती है। भारत में यह Super-Ego बाह्य सत्ता (बुज़ुर्ग, गुरु, समाज) के रूप में रहता है। उसका डर व्यक्ति को लज्जित करता है, लेकिन आंतरिक नैतिक विवेक नहीं पैदा करता।


पश्चिम में Super-Ego एक आत्मनिर्मित नियामक बनता है—एक अंतःन्यायाधीश (inner judge)। यही उसे अपराधबोध करने वाला बनाता है, चाहे कोई देखे या नहीं।


5. शिक्षा और औपनिवेशिक प्रभाव


भारत में नैतिकता को धर्म और समाज से कभी अलग नहीं किया गया। शिक्षा का उद्देश्य भी परंपरा की पुनरावृत्ति रहा, न कि आलोचना या आत्मान्वेषण। औपनिवेशिक अनुभव ने व्यक्ति को और भी निष्क्रिय बनाया; सत्ता से परे, आत्मग्लानि रहित विद्रोह की एक सतही संस्कृति विकसित हुई।


पश्चिम में पुनर्जागरण और प्रबोधन काल ने ईश्वर और राज्य—दोनों से स्वतंत्र नैतिक विवेक की नींव रखी।


6. समकालीन प्रभाव: नैतिक निष्क्रियता और प्रतिशोधात्मक राजनीति


आज भी भारत में नैतिकता अक्सर "लोगों की नज़रों में बचना" मात्र है। इसलिए जब अपने लोग अपराध करें, तो हम उन्हें छिपाते हैं, या उनका बचाव करते हैं। लेकिन जब "दूसरे" वही करें, तो नैतिकता की तलवार लेकर खड़े हो जाते हैं।


यह द्वैध नैतिकता “tribal morality” का लक्षण है — नैतिकता की अपेक्षा केवल अपने बाहर वालों से करना, और अपने भीतर अंधविश्वास, जाति, धर्म, भावुकता या परंपरा की आड़ में बच निकलना।


नैतिकता का पुनर्निर्माण कैसे हो


यदि भारत को "guilt-culture" की दिशा में बढ़ना है, तो तीन ज़रूरी बदलावों की आवश्यकता है:


1. शिक्षा प्रणाली में नैतिक विचारशीलता (moral reflectivity) का विकास हो — जहाँ बच्चे केवल "क्या सही है" न सीखें, बल्कि क्यों सही है यह भी पूछें।


2. धार्मिक परंपराओं का विवेकपूर्ण पुनर्पाठ हो — जिसमें आत्म-स्वीकृति, सुधार और नैतिक जवाबदेही पर बल दिया जाए।


3. न्यायिक, संस्थागत और सामाजिक प्रक्रियाओं को इस तरह ढाला जाए कि वे व्यक्ति को व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना के साथ प्रशिक्षित करें।


इस विवेचना का निष्कर्ष है कि लज्जा सामाजिक भय है और अपराधबोध आत्मा की पुकार। भारत तब तक नैतिक रूप से परिपक्व नहीं हो सकता जब तक वह अपनी नैतिकता को केवल सामाजिक मर्यादा की निगाह से देखता रहेगा। आत्मग्लानि एक उच्चतर चेतना का सूचक है, और वही हमें झूठे आचरण से सच्ची मुक्ति की ओर ले जाती है।