सोमवार, 12 सितंबर 2016

इंटेलिजेंसिया और नयी व्यवस्था की नींव

आपकी जिज्ञासा उत्तम है। तो आगे बढ़ें। जाएँ वहाँ, जब सारे ऋषि-मुनि जंगलों में रहकर ज्ञान की उपासना करने लगे थे (शहर से दूर, रेजिडेंसियल कैंपस में पढ़ने-पढ़ाने ओर रिसर्च करने-करवाने लगे थे - अपने को जनजीवन से दूर कर चुके थे) शहर - देहात निरंकुश शासकों के हाथ में था। वे जनता को लूट कर खूब ऐश-मौज़ करते थे। किसी की बेटी-रोटी या संपत्ति का लिहाज़ करना भूल चुके थे। इसी रौ में कार्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि की गैया पर हाथ डाल दिया। ऋषि ने इनकार किया तो ज़बरन ले गए। परशुराम गैया को लड़-झगड़ कर लौटा लाये, तो अर्जुन के बेटों ने जमदग्नि का क़त्ल कर दिया। इसपर परशुराम आपे से बाहर हो गए। समर्थ नेता थे, ऋषि-कुमारों को जुटा कर सेना बना ली। कहते हैं, इक्कीस बार बेहूदे राजाओं को क़त्ल किया। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया की सेना का बनना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

बेचारे चाणक्य (कौटिल्य) तक्षशिला के कुलपति थे। तक्षशिला रेजिडेंसियल विश्वविद्यालय थी। विद्यार्थियों की जीविका के लिए अनुदान चाहिए था। उस समय राजा लोग ही यूजीसी थे (आज भी शिक्षामंत्री ही यूजीसी के मालिक हैं)। मगध आये चाणक्य। अनुदान माँगा तो अपमान मिला। कोई आज-कल के कुलपति तो थे नहीं कि पूँछ हिलाते यूजीसी के बाबुओं के आगे। बिफ़र गए, वाइस-चांसलरी छोड़ी, और चुटिया खोल कर हिला दी। डुबा दिया राजा को। नयी व्यवस्था की स्थापना हुई। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया का कमान संभालना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

भारत अंग्रेजों का गुलाम था। अफ़्रीका में थे मोहनदास गाँधी। गोरों ने उनकी चुटिया खींच ली, अपमानित किया। लौट आये भारत। पुकार लगाई। इंटेलिजेंसिया ने सुनी। हीरा-ब्रांड इंटेलिजेंसिया ने अपने कैरियर को लात मारी। राजेंद्र प्रसाद, जेपी, लोहिया, तिलक, नौरोज़ी, अरविन्द, सुभाष, नेहरू, जिन्ना कितने नाम गिनाएँ। सबने अपने घर ख़ुद फूंक लिए। जेल में रहे, लाठियाँ खाई। कुछ एक ने तो शादी तक न की। भारत स्वतंत्र हुआ। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया का कमान संभालना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

है आज वैसा एक भी भारतीय विश्वविद्यालयों में (पूँछ का न होना आदमी होने की मज़बूरी ही तो है!)? एसोसिएशन बनते हैं बिगड़ते है, स्वार्थ को लेकर, हासा के लिए (याद कीजिये)। निकला काम गुदरिया साला। कहाँ-की एकता ? एकता तो बम्बई गयी, कपूर बनकर काफ़ूर हो गयी। जहाँ की इंटेलिजेंसिया नामर्दी की दवा खा रही हो (वो भी यूनिवर्सिटी क्लीनिक के बूते पर), वहाँ कोई सुधार नहीं हो सकता। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः (शान्ति पसन्द ना आये तो सुशीला को ढूंढिए)।

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