रविवार, 14 मई 2023

दिवाली की सुबह

दिवाली की रात की सुबह

मैंने घर के बाहर

लॉन में, ओसारे पर

फटे हुए, बुझे हुए, चुके हुए

आतिशबाजी के वीरों को पड़ा देखा

सभी मर चुके थे

और चारों और सन्नाटा पसरा था।


उन्नीस सौ सैंतालीस

पंद्रह अगस्त की सुबह

महाभारत युद्ध के बाद की

उन्नीसवीं सुबह।


नजर दौड़ाई चारों ओर

न कोई कुंती थी

न गांधारी

न सुभद्रा।

उत्तरा मर चुकी थी

भ्रूण को पेट में लिये।


काहे का परीक्षित?

कृष्ण अगोचर थे।


तब से अब तक

सन्नाटे का साम्राज्य है

धर्म की स्थापना के नाम पर।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

अर्थ का अर्थ

संस्कृत या हिंदी का शब्द 'अर्थ' बहु-आयामी है। अर्थ का एक तात्पर्य है समानवाचकता। जैसे वह्नि का अर्थ है आग। वह्नि और आग दोनों शब्द मोटा-मोटी एक ही चीज या सबस्टैंस को सूचित करते हैं। अर्थ का दूसरा तात्पर्य है वे साधन जो जीवनयापन,, सामाजिकता और कामनाओं की पूर्ति इत्यादि के लिए प्रयुक्त होते हैं। धन इसका पर्यायवाची है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुष्क में अर्थ का यही तात्पर्य है। इस श्लोक को देखिए:

 यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बांधवाः। यस्यार्थाः स पुमान् लोके यस्यार्थाः स च पंडितः। 

 इस श्लोक का तात्पर्य है कि साधन-संपन्नता ही worth देती है। वहीं मित्र बनाती है, बंधु बनाती है, पुरुष (पुरुषार्थी) बनाती है, पंडित बनाती है। अर्थ का एक तात्पर्य उद्देश्य और कामना भी है। इस श्लोक को देखिए:  

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते। त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निस्वं गच्छति दूरतः।। 

 पुरुष का प्रथम उद्देश्य अर्थोपार्जन है। अर्थ धन के रूप में कामनाओं का साधक होता हैं। अपनी निजी कामनाओं का, परिवार की कामनाओं का, बांधवों, कुटुम्बियों और मित्रों की कामनाओं का, मददगारों और सेवकों की कामनाओं का। इतना ही नहीं, धर्म भी अर्थजन्य है। कौटिल्य ने कहा है - सुखस्य मूलंं धर्मः, धर्मस्य मूलं अर्थः।  

एक बहुचर्चित शब्द है परमार्थ। परमार्थ यानी the ultimate meaning, the highest meaning, the subtle and most substantive meaning, the essential meaning. इस परमार्थ के लिए ही कहा गया है: वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर। परमारथ के कारनें साधुन धरा सरीर।। मतलब कि परमार्थ का तात्पर्य है समाजसेवा। निस्वार्थ समाजसेवा। पेड़ की तरह। फल देते रहेंगे, सींचने वाले को भी, नहीं सींचने वाले को भी। गंगा की तरह, पूजा करने वाले को भी, प्रदूषण करने वाले को भी। समाज के सुचारु रूप से चलने के लिए परमार्थ आवश्यक है। 

परमार्थ ही public goods और social capital का निर्माण और संवहन करता है। इसी के संपोषण के दायित्व को पूरा करना देवऋण से मुक्ति दिलाता है। जिस देश की जनता, समृद्ध वर्ग, अधिकारी गण, और सरकार व नेतागण public goods और social capital के निर्माण व रख-रखाव में बेईमानी करते हैं वह देश नरक में तब्दील हो जाता है। परमार्थ के संपोषण, संरक्षण और संपादन में ढिलाई ही नरक की निर्मात्री है। इसी की रक्षा धर्म है। इसी को अस्त-व्यस्त करना पाप है। परमार्थ की भावना से प्रथमतया स्वार्थ और द्वितीयतया अहंकार का प्रत्याहार मोक्ष का द्वार है।  

उपर्युक्त विवेचन अर्थ के तात्पर्य पर चिंतन है। यह अर्थ के आयामों पर चिंतन है।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

महाभारत कालीन कथाओं में वर्णित मित्रता

 महाभारत कालीन कथाओं में वर्णित मित्रता

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महाभारत कालीन कथाओं में चार तरह की मित्रताएं देखने में आती हैं; कृष्ण और सुदामा की मित्रता,  कृष्ण और अर्जुन की मित्रता,  द्रोण और द्रुपद की मित्रता तथा कर्ण और दुर्योधन की मित्रता। 

कृष्ण और सुदामा सहपाठी थे। कृष्ण सामंत के बेटे थे, राजकुल के नाती थे। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण के बेटे थे। गुरुकुल से निकलने के बाद वे अपनी-अपनी जिंदगी जीने लगे। समय ने कृष्ण को राजा बना दिया, पर सुदामा एक गरीब ब्राह्मण बनकर जीने लगे। एक समय ऐसा आया जब सुदामा बड़ी आशाओं के साथ, पर डरते, झिझकते, कृष्ण के पास आये। मिलते ही, कृष्ण ने सुदामा के सामने अपना दिल खोलकर रख दिया। सुदामा के साथ कृष्ण ने वह मित्रता दिखाई कि वह युगों-युगों के लिए आदर्श हो गई।

कृष्ण अर्जुन के फुफेरे बड़े भाई थे और अभिन्न मित्र भी थे। कृष्ण अर्जुन के साले भी थे। बचपन में कभी मिल न सके थे। कृष्ण का बाल्य जीवन संकटपूर्ण था। अर्जुन का  बाल्यकाल भी बहुत दिक्कतों में बीता। लेकिन जब वे मिले तो दूध और पानी की तरह मिले। यह कृष्ण के ही बूते की ही बात थी कि पांडव महाभारत का युद्ध जीते और राजा बने। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे, हर अर्थ में। कृष्ण ने अर्जुन को हर संकट की घड़ी में साथ दिया, अर्जुन को कमजोर करने वाले तथ्यों को अर्जुन से, पांडवों से, छिपाकर रखा, सही युद्धनीति सिखाई,  गलतियां करने से रोका, जरूरत पड़ने पर डांटा, सही रास्ता सुझाया, और लक्ष्य तक पहुंचाया।

द्रोण और द्रुपद सहपाठी थे। द्रोण एक गरीब ब्राह्मण थे लेकिन द्रुपद राजा थे। द्रोण पहुंचे द्रुपद के पास, कुछ मदद मांगने, पर राजा द्रुपद से नहीं, मित्र द्रुपद से। द्रुपद ने द्रोण की बड़ी बेइज्जती की। द्रुपद का गुस्सा इस कारण से था कि एक दरिद्र ने एक राजा को मित्र क्यों कहा। द्रुपद का व्यवहार नीचतापूर्ण था। इस अपमान के बावजूद द्रोण का व्यवहार संयमित, वीरत्वपूर्ण और मिला-जुलाकर ठीक ही था (नहीं तो क्या द्रोण धृष्टद्युम्न को अपना शिष्य बनाते, या स्त्री शिखंडी को अपने मित्र स्थूणाकर्ण से शल्यक्रिया करवा कर पुरुष बनवाते?)। पर वह द्रुपद को व्यक्तिगत रूप से क्षमा नहीं कर पाये। यह मित्रता का बुरा उदाहरण था।

कर्ण की वीरता में और उसकी अर्जुन से अदम्य प्रतिस्पर्धा तथा पांडवों के प्रति दुर्भावना में, दुर्योधन ने बड़ी संभावनाएं देखीं। दुर्योधन ने कर्ण की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और लगे हाथ उसे अंगप्रदेश का राजा बना दिया। इससे दुर्योधन को दो फायदे हुए। अंग मगध के पास किंतु हस्तिनापुर से दूर था। मगध पर जरासंध जैसे शक्तिशाली सम्राट का शासन था जिसे राज्य विस्तार और चौधराहट का बड़ा शौक था। अतः अंगप्रदेश खतरे में था। कर्ण को अंगराज बनाने से वह खतरा टल गया क्योंकि कर्ण जरासंध पर भारी पड़ता था। ध्यातव्य है कि कर्ण अबसेंटी लॉर्ड था। वह बचपन से मौत तक हस्तिनापुर में ही रहता था और दुर्योधन की परछाई था। फिर भी अंगप्रदेश सुरक्षित रहा। दूसरा फायदा यह था कि राजा बनने से कर्ण का राजनीतिक और सामाजिक स्तर ऊपर उठ गया। कर्ण दुर्योधन का आभारी हो गया और वह पांडवों के विरोध के लिए अचूक हथियार बन गया। ध्यातव्य है कि कर्ण ने ग़लत काम में भी दुर्योधन का विरोध नहीं किया वरन् साथ ही दिया। कर्ण एक ईमानदार और विश्वसनीय दोस्त जरूर था, लेकिन वह आदर्श दोस्त नहीं था। पापकृत्य में प्रवृत्त होने से रोकना और सही रास्ता दिखाना मित्र का आवश्यक कर्तव्य है। वह कर्ण ने नहीं किया। इसी लिए हम कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती को आदर्श दोस्ती नहीं कह सकते।

सोमवार, 31 मई 2021

जीवन का उदय और अस्त

 1. परमात्मा (the Ultimate Existence Principle) है।

2. प्रकट होना (the act of manifestation or being overt) और प्रच्छन्न होना (the act of concealment or being covert) परमात्मा की माया है। यह लुका-छिपी उसका खेल है। प्रकट भी वही होता है और प्रच्छन्न भी वही होता है। उदय और विलय उसी का खेल है।

3. प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की माया सात पदार्थों का सृजन करती है। कणाद यहीं से शुरू करते हैं। वे सात पदार्थ हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। इन सातों के अनेक भेद हैं। 

4. परमात्मा में सभी द्रव्य, सभी गुण, सभी कर्म हैं। बात प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की हैं। प्रच्छन्नता में परमात्मा में कोई द्रव्य, कोई गुण, कोई कर्म नहीं है, लेकिन प्रकटता में द्रव्य, गुण और कर्म आभासित हो जाते हैं। यह माया का खेल है।

5. जो सब में प्रकट हो उसे सामान्य कहते हैं, जो एक में प्रकट हो पर औरों में प्रच्छन्न हो उसे विशेष कहते हैं, और जो सभी में प्रच्छन्न हो उसे अभाव कहते हैं। अत्यन्ताभाव का भी अत्यन्ताभाव परमभाव है। परमात्मा परमभाव है, The Ultimate Existence है।

6. द्रव्यों की संहति और तज्जन्य संयोग से पूर्व प्रच्छन्न गुण कर्मों का उदय या पूर्व प्रकट गुण कर्मों का विलय ही समवाय है।

7. जड़, निर्जीव और अचेतन में जीवन, आत्मा, चैतन्य, और मन का प्रकट होना उसी की माया है, और सजीव व चेतन का जड़ होना भी उसी की माया है। ये माया के दो रूप Eros और Thanatos हैं। Eros और Thanatos क्रमशः जीवेषणा और मृत्य्वेषणा है, जड़ से चैतन्य और चैतन्य से जड़ होने की कामना है।

8. जीवेषणा रचनात्मक है और मृत्य्वेषणा संहारात्मक है। दोनों ही की दिशाएं वाह्य या आभ्यंतरिक हो सकती हैं। दोनों अलग-अलग भी हो सकती हैं और जुड़ी हुई भी।

9. जीवित और निर्जीव दोनों के अंतस्तल में उसके पिछले दिनों के अनुभवों की छाप होती है। ये अनुभव विशेष/व्यक्तिगत हो सकते हैं और समष्टिगत भी। इन छापों की स्मृति हो भी सकती है और न‌ भी हो सकती है।

10. योग उन छापों को सप्रयास टटोलना और उन्हें चेतन स्मृति में लाना है। योग ज्ञानप्राप्ति के लिए किया गया प्रयास और अभ्यास है। योगाभ्यास से कर्म में भी कुशलता आती है।

11. पूर्व संस्कारों की स्मृति स्वयंस्फूर्त भी हो सकती है। स्मृति स्थायी हो सकती है और अस्थायी भी, स्पष्ट या धुंधली भी।

12. पंचभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, और आकाश), दिशा और काल, मन और आत्मा द्रव्य कहलाते हैं। पंचभूत स्थिति, गति, शक्ति, ऊर्जा, और अंतरिक्ष हैं। पंचभूत दिशा और काल में हैं। इनके समवाय में चेतना का प्रकटीकरण आत्मा या जीवात्मा है। चेतना में वाह्य जगत से संयोग की कामना मन को प्रकट करता है। मन इन्द्रियों का निर्माण करता है। वही मन इंद्रियगम्य वाह्य जगत को अन्तर्जगत से, चेतना और आत्मा से, जोड़ने का पुल या सेतु है।

13. दिशा और काल में स्थित सजीव समवाय में सातों द्रव्य प्रकट होते हैं। निर्जीव समवाय में केवल पांच द्रव्य प्रकट होते हैं क्योंकि उनमें आत्मा और मन प्रकट नहीं होते। सजीव समवाय में आत्मा और मन का तिरोभाव जीव की मृत्यु है। इन सात द्रव्यों के प्रकटीकरण से बने समवाय में दो का तिरोभाव और केवल पांच का प्राकट्य पंचत्व में जाना कहलाता है। सप्तत्वात् पंचत्वं गतः या पंचत्वं गतः, यानी मर गया।

14. जीव की मृत्यु के बाद आत्मा कहीं बाहर नहीं चली जाती, न मन कहीं बाहर चला जाता है। वे केवल प्रच्छन्न हो जाते हैं। निर्जीव समवाय में आत्मा और मन कहीं से आते नहीं हैं। वे तो रहते ही हैं, केवल प्रकट हो जाते हैं।

15. निर्जीव में जीव कहां से आया, यह प्रश्न ही बेतुका है। निर्जीव समवाय में जीव - आत्मा और मन - प्रच्छन्न थे। वे प्रकट हो गये तो निर्जीव समवाय संजीव हो गया। वे छिप गये तो सजीव समवाय मर गया, पंचत्वं गतः। यह सप्तत्वं गतः और पंचत्वं गतः का खेल है।

16. वह परमात्मा सब में - सजीव में, निर्जीव में, व्यष्टि में, समष्ठि में, समग्र रूप से स्थित है। फर्क इसमें है कि उसकी माया ने कहां, कब, किसमें, कितना प्रकट किया है और कितना प्रच्छन्न रखा है।

बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

माँ के मज़ूर

शुरू के दिनों में विवेकानंद अपनी मुक्ति के वारे में सोचा करते थे, श्री रामकृष्ण परमहंस से भी उसी मुक्ति की युक्ति के वारे में पूछा करते थे|
एक दिन श्री परमहंस ने उनको डाँटा| कहा कि अपनी मुक्ति के वारे में स्वार्थी की तरह इतना क्यों सोचते रहते हो? माँ ने जीवन देकर तुम्हें अपनी चाकरी में बहाल किया है| उनका काम करो| शाम होगी तो मजूरी मिल जाएगी| चले जाना| मुक्ति ही मुक्ति है, कौन पकड़े हुए है तुम्हें? क्या और मजूर नहीं मिलेंगे माँ को? फिर, मर्जी हो तो काम पर आ जाना| काम-धाम साढ़े बाइस, आते ही मजूरी चाहिए|
विवेकानंद जी समझदार थे| गुरु जी का इशारा समझ गए|

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

विवेकानंद जी की समाधि

कहते हैं, विवकानंद जी समाधि की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ज़िद मचाये हुए थे, और श्री रामकृष्ण परमहंस उनको टालते जा रहे थे| आख़िर श्री रामकृष्ण परमहंस हार गए, और उन्होंने विवकानंद जी को समाधि कि स्थिति में पहुँचा दिया| जब विवेकानंद जी समाधि की स्थिति से सामान्य स्थिति में लौटे, तो गुरु महाराज ने कहा - देख लिया न? बस| अब तू कभी समाधि की स्थिति में नहीं जा सकेगा| ताला बंद, चाबी मेरे पास| अब ताला एक वार ही खुलेगा - जब तू जानेवाला होगा| फिर तू चला जायेगा, लौटेगा नहीं| महासमाधि होगी|
विवेकानंद जी चिंतनशील थे| वह सोचने लगे कि गुरु जी ने देकर क्यों छीना? क्या मंशा है उनकी? क्या चाहते हैं? विना कहे ही क्या कहा उन्होंने? क्या उपदेश दिया? उनके लिए तो शिष्य को समाधि दिलाना और बच्चे को अमरुद दिलाना दोनों बराबर हैं, फिर यह ताले-चाबी की बात क्यों? क्या समाधि से भी बड़ी कोई चीज़ है जो मुझे देना चाहते हैं| क्या समाधि खिलौना है और वह नहीं चाहते कि मैं खिलौने के पीछे पागल होकर अपने उद्देश्य को भूल जाऊँ? क्या चाहते हैं वह? क्या करवाना चाहते हैं मुझसे? फिर अंतकाल में महासमाधि क्यों? क्या वह चाहते हैं कि मैं जाने के पहले यह समझ लूँ कि जो किया वह भी खेल था, जीना खेल था, करना खेल था, अब जाना भी खेल है? चलो, वाहे गुरू की फ़तह| उन्हीं की चले, जैसी उनकी मर्जी|
विवेकानंद जी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे| उनकी गहरी पैठ थी भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में| आश्चर्यजनक याददाश्त और धारणाशक्ति थी उनकी| मन-ही-मन सारा पढ़ा शास्त्र खँगालने लगे| श्री रामकृष्ण परमहंस और विवकानंद जी में यह बहुत बड़ा अंतर था| श्री परमहंस का चित्त/मन सब्लिमेटरी था - वह एक दुनियाँ से दूसरी दुनियाँ में फांद कर चले जाते थे विदाउट गोइंग थ्रू अ प्रॉपर चैनल, पलक झपकते ग़ायब| विवकानंद जी रास्ते-रास्ते जाने वाले थे, क्रमिक ढंग से, लेक़िन बहुत तेज़ी से| सो, वह चले रास्ता पकड़ कर|
शास्त्रों को खँगाला तो हर जग़ह एक ही निष्कर्ष| पूरब में भी, पश्चिम में भी| जीवन का उद्देश्य है समाज का कल्याण, समाज का उत्थान, मानवीय मूल्यों की स्थापना, हृदय-हृदय में आलोक और शुभ-चिंतन, आईने सा साफ़ मन, फूलों का समाज, बच्चों की किलकारियों से भरा समाज, मां की ममता और बहन-बेटी के प्रेम से लबालब भरे नारी-हृदय, पिता और भाई के स्नेह से भरे पुरुष हृदय| भूख नहीं, बीमारी नहीं, चिंता नहीं, भय नहीं, ग़ुलामी नहीं| कर्म का यही अर्थ, धर्म का यही अर्थ, सत्य का यही अर्थ, तप का यही अर्थ, नैतिकता का यही अर्थ, जीवन का यही अर्थ, मृत्यु का यही अर्थ| अपनी व्यक्तिगत मुक्ति, और समाधि में उलझने का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है| अगर यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि समाज के लिए नहीं, वरन केवल अपने लिए हैं तो वे खिलौने हैं, बच्चों के लिए हैं|
विवेकानंद जी चिंतन में डूबे खड़े थे, कि श्री परमहंस वहाँ आ गए| हँसते हुए बोले - अब तो समझ गए? पर छूछे समझने से क्या होगा? करो, करना शुरू करो|
इस आदेश पर विवेकानंद जी ने सारी जिंदगी डाल दी|
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सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

खखरी और पोचा

सुजला, सुफला, शस्यश्यामला| पता नहीं, कवि (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, आनंदमठ में) ने सुदूर विगतकाल का वर्णन किया था, या तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया था. या वर्णित स्थिति के भविष्य में आने की कामना की थी| एक सौ छत्तीस वर्ष गुज़र गए आनंदमठ के| तब क्या होता था, कौन बतलाये? हाँ, जो कवि ने दर्शाया है वह बंगाल का दुर्भिक्ष काल था, जब लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे - सब गाँव छोड़कर यहाँ-वहाँ भाग रहे थे| तो अवश्य ही कवि ने माता के उस रूप की कल्पना की होगी जो बेड़ियों के कटने के बाद होगी, या बेड़ियों के लगने के पहले की होगी| मेरे परदादे का जमाना - बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जमाना - सुजला, सुफला, शस्यश्यामला धरती - मेरी धरती - मेरी जन्मभूमि - मेरे बाप-दादे-परदादे की जन्मभूमि| वन्दे मातरं|
मैं, बंकिमचंद्र का परपोता, क्या देख रहा हूँ? पृथ्वीमाता के अनगिनत परपोतों, प्रपरपोतों की भीड़ - बेरोज़गार बच्चों की भीड़, ख़ानदान की परंपरा और इज्ज़त को तार-तार करने के लिए हुहुआती भीड़, किसको कहाँ और कैसे लूट लें का मौक़ा ढूंढती भीड़, माता की गरिमा पर कीचड़ उछालने को उत्सुक भीड़, अपनी संस्कृति को लतियाती भीड़, भेड़ियों की भीड़, भेड़ों की भीड़, दलालों की भीड़, कंगालों की भीड़, फटे-हालों की भीड़|
धान के पौधे पला गए| पुआल ही पुआल - दाने नहीं लगे| सारा खाद-पानी बेकार गया| उपजा पर पोचा-पुआल| बुद्धि तो घास चरकर जिन्दा रह सकती है, लेक़िन शरीर क्या करे? बुद्धिमान लोग चारा खा सकते हैं, उन्हें पुआल की जरूरत है, पुआल-पोचा फ़सल बेशकीमती है - जहाँ चाहेँगे लगा देंगे - एक जून का खाना देकर - जय बोलेंगे, प्रदर्शन करेंगे, धरना देंगे, लाठी खायेंगे, टाँग तुड़वा कर घर लौट आयेंगे, इंकलाब करते हुए खेत आयेंगे, ख़ून की खाद दे देंगे| पुआल बड़े काम की चीज़ है - पोचा बड़े काम की चीज़ है| लेकिन आम आदमी तो पुआल खाकर जिन्दा नहीं रह सकता, सब तो नेता नहीं बन सकते|

खखरी - केवल भूसा, दाना नहीं| ओसाओ, फटको तो सब उड़ जायेंगे| हाँ, तब भी काम में आयेंगे - चूल्हे-भाड़ में झोंकने के काम आयेंगे - गाय-गोरू को खिलाने के काम आयेंगे| भारतमाता की औलाद - खखरी| डिग्री भी देते हैं और अनइम्प्लॉयेबल (निकम्मा, रोज़गार के अयोग्य) भी कहेंगे| अस्सी से अधिक प्रतिशत यांत्रिकी-डिग्रीधारी निकम्मे - डोनेशन देकर पढ़े - बाप की ज़मीन बिकवाकर पढ़े| खखरी|
कुछ खखरी अपने को बुद्धिजीवी कहने लगे हैं | थोथा चना बाजे घना| मैंने एक बुद्धिजीवी लौंडे को पूछा कि मार्क्स की क़िताब Das Kapital में Das का क्या अर्थ है? वह झुंझलाकर बोला - मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो अंकल| अरे, यह भी कोई प्रश्न है? दास का मतलब है ग़ुलाम| कैपिटल की इस्पेलिंग ग़लत लिखी है तुमने, Capital होती है| आप क्या समझेंगे, आप सब साम्राज्यवादी रहे हैं, पूँजीवाद के समर्थक| तभी तो Calcutta से Kolkata बनाया गया| Das Kapital का मतलब है सर्बोहारा - जिन्हें पूँजीवादियों ने गुलाम - दास - बनाया है|
खखरी, पोचा| दादा बंकिमचंद्र जी, आपके परपोते और उनकी औलाद खर-पतवार हैं|