1. परमात्मा (the Ultimate Existence Principle) है।
2. प्रकट होना (the act of manifestation or being overt) और प्रच्छन्न होना (the act of concealment or being covert) परमात्मा की माया है। यह लुका-छिपी उसका खेल है। प्रकट भी वही होता है और प्रच्छन्न भी वही होता है। उदय और विलय उसी का खेल है।
3. प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की माया सात पदार्थों का सृजन करती है। कणाद यहीं से शुरू करते हैं। वे सात पदार्थ हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। इन सातों के अनेक भेद हैं।
4. परमात्मा में सभी द्रव्य, सभी गुण, सभी कर्म हैं। बात प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की हैं। प्रच्छन्नता में परमात्मा में कोई द्रव्य, कोई गुण, कोई कर्म नहीं है, लेकिन प्रकटता में द्रव्य, गुण और कर्म आभासित हो जाते हैं। यह माया का खेल है।
5. जो सब में प्रकट हो उसे सामान्य कहते हैं, जो एक में प्रकट हो पर औरों में प्रच्छन्न हो उसे विशेष कहते हैं, और जो सभी में प्रच्छन्न हो उसे अभाव कहते हैं। अत्यन्ताभाव का भी अत्यन्ताभाव परमभाव है। परमात्मा परमभाव है, The Ultimate Existence है।
6. द्रव्यों की संहति और तज्जन्य संयोग से पूर्व प्रच्छन्न गुण कर्मों का उदय या पूर्व प्रकट गुण कर्मों का विलय ही समवाय है।
7. जड़, निर्जीव और अचेतन में जीवन, आत्मा, चैतन्य, और मन का प्रकट होना उसी की माया है, और सजीव व चेतन का जड़ होना भी उसी की माया है। ये माया के दो रूप Eros और Thanatos हैं। Eros और Thanatos क्रमशः जीवेषणा और मृत्य्वेषणा है, जड़ से चैतन्य और चैतन्य से जड़ होने की कामना है।
8. जीवेषणा रचनात्मक है और मृत्य्वेषणा संहारात्मक है। दोनों ही की दिशाएं वाह्य या आभ्यंतरिक हो सकती हैं। दोनों अलग-अलग भी हो सकती हैं और जुड़ी हुई भी।
9. जीवित और निर्जीव दोनों के अंतस्तल में उसके पिछले दिनों के अनुभवों की छाप होती है। ये अनुभव विशेष/व्यक्तिगत हो सकते हैं और समष्टिगत भी। इन छापों की स्मृति हो भी सकती है और न भी हो सकती है।
10. योग उन छापों को सप्रयास टटोलना और उन्हें चेतन स्मृति में लाना है। योग ज्ञानप्राप्ति के लिए किया गया प्रयास और अभ्यास है। योगाभ्यास से कर्म में भी कुशलता आती है।
11. पूर्व संस्कारों की स्मृति स्वयंस्फूर्त भी हो सकती है। स्मृति स्थायी हो सकती है और अस्थायी भी, स्पष्ट या धुंधली भी।
12. पंचभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, और आकाश), दिशा और काल, मन और आत्मा द्रव्य कहलाते हैं। पंचभूत स्थिति, गति, शक्ति, ऊर्जा, और अंतरिक्ष हैं। पंचभूत दिशा और काल में हैं। इनके समवाय में चेतना का प्रकटीकरण आत्मा या जीवात्मा है। चेतना में वाह्य जगत से संयोग की कामना मन को प्रकट करता है। मन इन्द्रियों का निर्माण करता है। वही मन इंद्रियगम्य वाह्य जगत को अन्तर्जगत से, चेतना और आत्मा से, जोड़ने का पुल या सेतु है।
13. दिशा और काल में स्थित सजीव समवाय में सातों द्रव्य प्रकट होते हैं। निर्जीव समवाय में केवल पांच द्रव्य प्रकट होते हैं क्योंकि उनमें आत्मा और मन प्रकट नहीं होते। सजीव समवाय में आत्मा और मन का तिरोभाव जीव की मृत्यु है। इन सात द्रव्यों के प्रकटीकरण से बने समवाय में दो का तिरोभाव और केवल पांच का प्राकट्य पंचत्व में जाना कहलाता है। सप्तत्वात् पंचत्वं गतः या पंचत्वं गतः, यानी मर गया।
14. जीव की मृत्यु के बाद आत्मा कहीं बाहर नहीं चली जाती, न मन कहीं बाहर चला जाता है। वे केवल प्रच्छन्न हो जाते हैं। निर्जीव समवाय में आत्मा और मन कहीं से आते नहीं हैं। वे तो रहते ही हैं, केवल प्रकट हो जाते हैं।
15. निर्जीव में जीव कहां से आया, यह प्रश्न ही बेतुका है। निर्जीव समवाय में जीव - आत्मा और मन - प्रच्छन्न थे। वे प्रकट हो गये तो निर्जीव समवाय संजीव हो गया। वे छिप गये तो सजीव समवाय मर गया, पंचत्वं गतः। यह सप्तत्वं गतः और पंचत्वं गतः का खेल है।
16. वह परमात्मा सब में - सजीव में, निर्जीव में, व्यष्टि में, समष्ठि में, समग्र रूप से स्थित है। फर्क इसमें है कि उसकी माया ने कहां, कब, किसमें, कितना प्रकट किया है और कितना प्रच्छन्न रखा है।