कांवर और शून्यता: श्रद्धा, विकल्पहीनता और एक पढ़े-लिखे आदमी की गवाही
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इन दिनों कांवर ले जाने की परंपरा पर ज़ोरदार बहस छिड़ी हुई है। सड़कों पर उमड़ती भीड़, गूंजते डीजे, और तीव्र धार्मिक जोश को देखकर कुछ लोग आस्था के उत्सव में डूबे हैं, तो कुछ इस पर ब्राह्मणवाद, धार्मिक पाखंड, और सामूहिक पागलपन के आरोप मढ़ रहे हैं। दोनों तरफ नारे हैं, तर्क हैं, और बौद्धिकता का भ्रम पालता एक वर्ग है, जो कह रहा है — "पढ़ो-लिखो, कांवर क्यों ढोते हो?"
पर मैं पूछता हूँ — कांवर के सिवा रास्ता क्या है?
दिया है कोई रास्ता? हमारे समाज ने? सरकार ने? धर्म ने?
कहते हैं, पढ़ो-लिखो। तो ठीक है, मान लिया।
मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूं। इतना कि मेरी बराबरी करने में कोई थक कर निढाल हो जाए। पर क्या करूँ इस पढ़ाई का? उस नौकरी की प्रतीक्षा करूँ जो कभी आएगी नहीं? उस जीवन को ढोता रहूं, जिसे ढोना ही अपने-आप में एक थकाऊ चढ़ाई है?
कांवर ढोने वालों को देख कर जो लोग उन्हें उपहास की दृष्टि से देखते हैं, वे शायद उस सामाजिक शून्यता को नहीं समझते जिसमें कांवर ही एकमात्र गतिशील प्रतीक बन जाता है। यह श्रद्धा नहीं, केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं — यह है विकल्पहीनता की संगठित यात्रा, एक अधूरे मनुष्य की प्रतिज्ञा, जो कहता है, "कम से कम यह कर सकता हूं, और यही करूंगा।"
कांवर ढोने वालों में अधिकांश वे हैं जो अपने जीवन की हर सुबह एक हार से शुरू करते हैं —हार रोज़गार की, हार स्वाभिमान की, हार सामाजिक मान्यता की। और फिर वे कांवर उठाते हैं — एक संतुलन, एक नियम, एक स्व-अनुशासन, जिसमें जीवन के अनियंत्रण पर थोड़ी-सी सत्ता पाई जाती है।
जो आलोचक हैं, वे प्रायः मध्यवर्गीय, सामान्य पढ़े-लिखे मिथ्या-नैतिकतावादी हैं, जो यह तो कह देते हैं कि “धार्मिक पाखंड बंद करो”, लेकिन यह नहीं बताते कि क्या करो। वे कहते हैं “तर्क से सोचो”, पर यह नहीं बताते कि तर्क किस ओर ले जाएगा। वे कहते हैं “विज्ञान की ओर जाओ”, पर यह नहीं बताते कि विज्ञान किसके लिए खुला है?
शिक्षा, जिसे हम समाधान मानते हैं, वह भी तो एक शोषणमूलक संरचना बन चुकी है — जहां डिग्री एक निरंतर अपमान की चिट्ठी है, और ज्ञान केवल बाजार की भाषा में गिना जाता है।
तो क्या यह सब छोड़कर कांवर उठाना केवल पाखंड है? या यह एक मौन घोषणा है —
"तुम्हारे सारे विकल्प झूठे हैं, मैं अपना सत्य खुद चुनूंगा।"
कांवर चलने वालों में अधिकांश ग्राम्य, अर्ध-शहरी, बेरोज़गार, हाशिये पर खड़े लोग हैं। वे वह वर्ग हैं जिसे राजनीति केवल वोटर, और धर्म केवल दानदाता समझता है। उनके लिए कांवर एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि प्रतिस्थापन है उस स्पेस का जो उन्हें कहीं और नहीं मिला।
और जब वे, जो पढ़े-लिखे हैं, और आत्मसंतुष्ट बौद्धिक कहलाते हैं, इस पर उपहास करते हैं, तो क्या हम वास्तव में कांवर पर हँसते हैं? या हम उस दर्पण से डरते हैं, जो कांवर ढोते हुए वह व्यक्ति हमारे सामने रख देता है?
मुझमें यदि कोई कंसीट है, तो वह इस बात का नहीं कि मैं तुमसे बेहतर हूं। बल्कि इस बात का कि मैं जानता हूं कि यह ‘बेहतर’ होना भी एक सामाजिक झूठ है। मैं जानता हूं कि ज्ञान की इस स्वघोषित ऊंचाई पर बैठे रहने का भ्रम पालता व्यक्ति, जब नीचे झांकता है, तो नीचे कांवर नहीं — अपनी ही खोखली आत्मा को चलता देखता है।
इसलिए कांवर को दोष मत दो। दोष दो उस व्यवस्था को, जिसने कांवर के अलावा कुछ छोड़ा ही नहीं। दोष दो उस भ्रांत आधुनिकता को, जो शिक्षा को मुक्ति नहीं, सजा बना देती है। दोष दो उस भाषा को, जो किसी गरीब की चुप्पी को श्रद्धा का पाखंड कहकर खुद को समझदार सिद्ध करती है।
आइए, कांवर ढोते उस युवक से पूछें —
तू कांवर क्यों ढोता है?
वह कहेगा —
"क्योंकि दुनिया ने मेरे लिए कुछ और छोड़ा ही नहीं। और कम से कम यह तो मेरा अपना है।"
यह लेख उस मौन यात्रा को समर्पित है, जो कांवर नहीं, एक प्रश्न है — जिसका उत्तर कोई नहीं देना चाहता।
पल भर के लिए कोई मुझे प्यार कर ले, झूठा ही सही।
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