बहुत दिनों की बात है। एक नगर में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था।
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यह मीम कैसे बना?
I. मीम्स क्या होते हैं और कैसे बनते हैं
मूल रूप से "meme" शब्द रिचर्ड डॉकिन्स ने अपनी किताब The Selfish Gene (1976) में गढ़ा था। इसका मतलब था — एक सांस्कृतिक विचार, परंपरा, या व्यवहार जो समाज में एक दिमाग से दूसरे दिमाग में फैलता है, जैसे एक जीन जैविक रूप से फैलता है।
आजकल इंटरनेट मीम्स मज़ाक, तंज़ या मज़ेदार तस्वीरों और टेक्स्ट के रूप में तेजी से वायरल होते हैं। इनमें एक दोहराई जाने वाली, तुरंत पहचानी जाने वाली संरचना होती है, जिससे लोग तेजी से जुड़ते हैं और उसे नए संदर्भ में ढालते हैं।
2. "एक गरीब ब्राह्मण था..." मीम कैसे बना
भारतीय कथाओं — विशेषतः पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ — में अक्सर कहानी ऐसे ही शुरू होती थी:
"एक नगर में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था…"
क्यों?
ब्राह्मण उस समय सामाजिक रूप से उच्च वर्ण में था, परंतु अक्सर आर्थिक रूप से दुर्बल।
इससे सहानुभूति और विडंबना दोनों पैदा होती थी।
ऐसी कहानियों में ब्राह्मण की चतुराई, मूर्खता या नैतिकता को परखा जाता था।
यह एक क्लासिकल स्टार्टिंग पैटर्न बन गया — जैसे अंग्रेज़ी में “Once upon a time…”
मीम में कैसे बदला?
आज जब कोई कहता है
"एक गरीब ब्राह्मण था…"
तो उसमें पुरानी कथाओं का सांचा और आज का व्यंग्य दोनों झलकते हैं। लोग इसका इस्तेमाल किसी असहाय, भोले या व्यर्थ के स्वाभिमानी किरदार को व्यंग्यात्मक तरीके से दिखाने में करते हैं।
क्यों लोकप्रिय हुआ?
ये वाक्य तुरंत पहचान में आता है।
इसमें सांस्कृतिक स्मृति और मज़ाकिया विरोधाभास दोनों है।
ये एक लघु सूत्र (memeable unit) बन गया, जिसे लोग अपने सन्दर्भ में ढाल सकते हैं।
II. ऐतिहासिक-सामाजिक विश्लेषण
1. सामाजिक विभाजन और भूमिका
भारतीय पारंपरिक व्यवस्था में राजनैतिक शक्ति क्षत्रियों के पास, आर्थिक शक्ति वैश्यों के पास, श्रम-सेवा और कारीगरी शूद्रों के पास थी और ब्राह्मणों के पास ज्ञान और अनुष्ठानिक अधिकार थे।
लेकिन धन का मूल स्रोत भूमि, व्यवसाय और कारीगरी था। ब्राह्मण, उस आर्थिक श्रंखला में सीधे नहीं जुड़ता था। उसका जीवन दान-भिक्षा आधारित था, जो उसकी सांस्कृतिक-धार्मिक प्रतिष्ठा पर निर्भर करता था।
जब समाज में दान की परंपरा या विद्वत्ता का सम्मान घटा, या आर्थिक केंद्रीकरण बढ़ा, तो ब्राह्मण की आर्थिक दरिद्रता एक स्वाभाविक अवस्था बन गई।
2. विद्वत्ता का संकट
विद्वत्ता न आसान थी, न विरासत में मिलती थी। पिता कितना भी विद्वान क्यों न हो, संचय, पूंजी, व्यवसाय और जमीन-जगह न होने से पिता की मृत्यु परिवार की आर्थिक स्थिति का ध्वस्त होना था। हर पीढ़ी को फिर से अध्ययन, तपस्या, और समाज से अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करनी पड़ती थी। संपत्ति न होने से संचय और सुरक्षा का अभाव हमेशा बना रहता था।
3. "दरिद्र ब्राह्मण" कथाओं में क्यों?
इन्हीं कारणों से सहानुभूति और विडंबना दोनों का द्वंद्व जन्म लेता है।
ऐसे पात्र को कहानी में मूर्ख, भोला या चतुर बनाकर धार्मिक-सामाजिक व्यंग्य भी किया जाता है।
यही बार-बार दोहराने से "मीम" जैसी सांस्कृतिक इकाई बन जाती है।
III. ब्राह्मण की दरिद्रता और नैतिकता के सूत्र
ब्राह्मणों की दरिद्रता और संबंधित भारतीय नैतिकता को नीत्शे के "slave morality" (ग़ुलाम मानसिकता) के सिद्धांत के दायरे में रखा जा सकता है।
स्लेव मॉरेलिटी क्या है?
नीत्शे ने "On the Genealogy of Morality" में दो प्रकार की नैतिकता की बात की —
Master Morality (सत्तावादी नैतिकता) — जो शक्ति, स्वतंत्रता, साहस, और आत्मनिर्भरता को श्रेष्ठ मानती है।
Slave Morality (ग़ुलाम नैतिकता) — जो दुर्बलता, विनम्रता, दयनीयता, त्याग और परलोकवाद को मूल्यवान बना देती है।
ग़ुलाम मानसिकता में जो शक्तिहीन है, वही पुण्यवान है। जो सफल, शक्तिशाली, आत्मनिर्भर है — वह ‘पापी’, ‘अहंकारी’ या ‘शोषक’ कहलाता है।
ब्राह्मण व्यवस्था में स्लेव मॉरेलिटी के तत्व
भारतीय पारंपरिक ब्राह्मण आदर्श में ऐसे ही तत्व मिलते हैं:
ब्राह्मण का रक्षण: समाज के अन्य वर्ण ब्राह्मण की अहिंसक, तपस्वी, निर्लोभी छवि का पालन करें — यही आग्रह किया गया।
दान का महत्व: दान ब्राह्मण की आर्थिक निर्भरता का आधार बन गया।
कठोर दंड की मनाही: ब्राह्मण अपराध करे तो भी दंड में कोमलता बरती जाए — यह शास्त्र-सिद्ध था।
गरीबी और विद्वत्ता का महिमामंडन:
"दरिद्र ब्राह्मण" होना पुण्य और उसकी विद्या-निर्भर श्रेष्ठता को स्थापित करने का साधन बना।
स्लेव मॉरेलिटी क्यों बनी?
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण समाज ने, भौतिक और राजनीतिक शक्ति के अभाव में, अपनी सांस्कृतिक और नैतिक श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए स्लेव मॉरेलिटी के आदर्शों को संस्थागत (institutionalised) किया।
जब शक्ति के केंद्र क्षत्रिय-वैश्य वर्ग के पास थे, भौतिक संचय निषिद्ध था, तो ब्राह्मण के लिए अपनी स्थिति को नैतिक-धार्मिक श्रेष्ठता में बदलना ही विकल्प था।
त्याग, भिक्षा, संयम, ज्ञान और रक्षण की अपेक्षा वास्तव में वर्चस्वहीनता की अनुकूलनात्मक प्रतिक्रिया थी।
यही स्लेव मॉरेलिटी है — जहाँ दुर्बलता को पुण्य, गरीबी को गरिमा, और दीनता को दिव्यता में रूपांतरित किया जाता है।
इन मुद्दों पर चिंतन अपेक्षित है:
1. आदर्श का यथार्थ से विचलन:
जिस विद्वत्ता और त्याग का महिमामंडन हुआ, वह सामाजिक यथार्थ में अनेक बार ढोंग, जड़ता और अवसरवाद में भी बदलता गया।
2. अन्यायपूर्ण संरचना की पुष्टि:
दान-निर्भरता, करुणा की अपेक्षा, और कठोर दंड-वर्जना जैसी व्यवस्थाएँ ब्राह्मण की निर्भरता और शेष समाज की अधीनता को संस्थागत करती रहीं।
3. सृजनात्मकता का ह्रास:
निर्भरता और परलोकवाद ने ब्राह्मण समाज को वास्तविक भौतिक और रचनात्मक संघर्ष से दूर कर दिया। विद्वत्ता का पुनरुत्पादन और नवीनता का संकट खड़ा हुआ।
4. मानव गरिमा का सीमित दृष्टिकोण:
"गरीब विद्वान ही श्रेष्ठ" का आदर्श भौतिक संपन्नता और स्वतंत्रता को तुच्छ मानकर, मानव गरिमा का एकांगी चित्र प्रस्तुत करता है।
इस तरह "ब्राह्मण का रक्षण, दान-निर्भरता, कठोर दंड की मनाही और गरीबी-विद्वत्ता का आदर्श" भारतीय समाज की एक ऐसी स्लेव मॉरेलिटी संरचना का द्योतक है, जो परिस्थितिजन्य निर्बलता को नैतिक महिमा में बदलने का प्रयास करती रही।
हालाँकि इसने विद्या और संस्कृति को संरक्षित अवश्य किया, पर साथ ही सामाजिक असमानता और निष्क्रियता को भी पोषित किया।
और "किसी नगर में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था" एक मीम बना गया।
IV. नीत्शे की स्लेव मॉरेलिटी की फ्रेम में "कृष्ण-सुदामा" और "द्रोण-द्रुपद" की कथाएं
1. कृष्ण-सुदामा कथा की समालोचना
कहानी का ढांचा
सुदामा — दरिद्र ब्राह्मण, विद्वान, त्यागी, निर्धन
कृष्ण — राजा, शक्तिशाली, मित्र, महाशय चरित्र
सुदामा बिना किसी स्वार्थ के कृष्ण से मिलने जाता है। कृष्ण अत्यंत प्रेम और श्रद्धा से उसका सत्कार करते हैं। सुदामा कुछ नहीं मांगता, पर कृष्ण उसे गुप्त रूप से विपुल संपदा प्रदान कर देते हैं।
स्लेव मॉरेलिटी विश्लेषण
सुदामा का त्याग और निर्धनता — यहाँ दरिद्रता को धार्मिक नैतिकता का आदर्श बनाकर महिमामंडित किया गया।
कृष्ण का दयालु राजसत्ताधारी बनना — शक्तिशाली राजा स्वयं को दीन पर कृपा करने वाला, सखा-सहृदय दर्शाता है।
दान आधारित आर्थिक न्याय — सुदामा न्याय, अधिकार या श्रम से नहीं, बल्कि राजा की कृपा से संपन्न बनता है।
यानी, सुदामा की दरिद्रता को पुण्य और त्याग का प्रतीक बना कर, कृपान्वित संपन्नता की व्यवस्था को नैतिक रूप दिया गया।
यह विशुद्ध स्लेव मॉरेलिटी का आदर्श प्रसंग है — जहाँ शक्तिहीन ब्राह्मण दीन और संतोषी बनकर शक्तिशाली के चरणों में सम्मान और कृपा प्राप्त करता है।
इस कहानी का संदेश —
"गरीब, त्यागी, संतोषी बनो, विद्या रखो, कभी न मांगो — राजा या सत्ताधारी खुद आएंगे।"
सत्ता-संपत्ति के एकतरफा केंद्रीकरण को स्थिर बनाए रखने का सांस्कृतिक औजार।
2. द्रोण-द्रुपद कथा की समालोचना
कहानी का ढांचा : द्रोण — गरीब ब्राह्मण, विद्वान, शस्त्रशिक्षक
द्रुपद — राजा, मित्र, घमंडी; द्रोण अपने पुराने मित्र द्रुपद से सहायता मांगते हैं। द्रुपद उसे तिरस्कारपूर्वक दुत्कार देते हैं। द्रोण अपमानित होकर, अपने शिष्यों (कौरव-पांडव) से द्रुपद को युद्ध में हरवाकर आधा राज्य लेते हैं। ध्यातव्य है कि द्रोण इस काम को क्षत्रिय माध्यम से ही पूरा करते हैं।
स्लेव मॉरेलिटी विश्लेषण
द्रोण की दरिद्रता और विद्वत्ता — पुनः वही ब्राह्मण-आदर्श : निर्धन पर विद्वान
द्रुपद का अस्वीकार — शक्ति-संपत्ति वाला व्यक्ति ब्राह्मण की निर्भरता और मित्रता को अस्वीकार करता है।
द्रोण का प्रतिशोध और सत्ता प्राप्ति — यहाँ द्रोण, स्लेव मॉरेलिटी की सीमाओं को तोड़कर मास्टर-मॉरेलिटी का आंशिक रूप ग्रहण करता है।
वह अपने अपमान और दुर्बलता को अस्वीकार करता है, और युद्ध द्वारा बदला लेता है।
द्वंद्वात्मक विश्लेषण
द्रोण दोनों नैतिकताओं के बीच फंसा है।
यदि वह विशुद्ध ब्राह्मण-आदर्श निभाता, तो अपमान सहकर मौन रहता।
परंतु उसने शस्त्र का सहारा लेकर सामर्थ्य से अपना हिस्सा छीना।
यह स्लेव मॉरेलिटी की विद्रोहात्मक परिणति है, जो अंततः मास्टर-मॉरेलिटी की ओर झुकती है।
इसलिए द्रोण, ब्राह्मण व्यवस्था में उपस्थित उस दबी हुई सत्ता-इच्छा का प्रतीक है, जिसे परंपरा ने दबा दिया था, पर जिसे अपमान और अवसर ने जागृत किया।
कृष्ण-सुदामा कथा स्लेव मॉरेलिटी की पुष्टिकर्ता है, जबकि द्रुपद-द्रोण कथा उसी मानसिकता का विद्रोह और अंतर्विरोध प्रकट करती है।
ये दोनों कथाएँ ब्राह्मण की शक्ति, दीनता और विद्वत्ता की भूमिका को दो विपरीत दिशाओं में उजागर करती हैं।
V. एक अर्थशास्त्रीय समीक्षा
1. सांस्कृतिक पूंजी (Cultural Capital) का रूपांतरण
पियरे बोरद्यू (Pierre Bourdieu) के अनुसार, समाज में पूंजी सिर्फ आर्थिक नहीं होती, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी होती है।
ब्राह्मण की विद्वत्ता, त्याग और नैतिक श्रेष्ठता उसकी सांस्कृतिक पूंजी थी, जिससे वह आर्थिक दान और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करता था।
जब समाज में दान और विद्वत्ता का मूल्य घटा, तब यह सांस्कृतिक पूंजी भी मूल्यहीन मुद्रा बन गई।
"दरिद्र ब्राह्मण" एक ऐसा सांकेतिक पात्र बन गया जो कभी सांस्कृतिक पूंजी का धनी था, और अब आर्थिक रूप से दरिद्र है।
2. अर्थ-संबंधी सत्ता-केन्द्र और वितरण तंत्र
भारतीय वर्ण-व्यवस्था में
वैश्य के पास आर्थिक पूंजी
क्षत्रिय के पास राजनीतिक शक्ति
ब्राह्मण के पास सांस्कृतिक-धार्मिक पूंजी थी।
ब्राह्मण का आर्थिक जीवन दान-आधारित वितरण प्रणाली पर टिका था।
इस व्यवस्था में
उत्पादन और उपभोग से ब्राह्मण अलग
और उसका जीवन सांस्कृतिक प्रदर्शन और अनुष्ठानिक सेवाओं पर आश्रित था।
यह मीम इस टूटे हुए वितरण-तंत्र का व्यंग्य है।
आज जबकि संपत्ति का मूल्य ज्यादा और सांस्कृतिक पूंजी का बाजार कमज़ोर है,
इसलिए "दरिद्र ब्राह्मण" मीम उस असमान विनिमय दर (unequal exchange rate) को उजागर करता है।
3. मान्यता आधारित मूल्य-निर्धारण (Reputation Economy)
ब्राह्मण व्यवस्था प्रामाणिकता और नैतिकता आधारित अर्थव्यवस्था थी।
ब्राह्मण की विद्वत्ता और त्याग की छवि उसकी कमाई की मान्यता (reputational currency) थी।
यह मीम दरअसल यह बताता है कि
आज बाजार-अर्थव्यवस्था में मान्यता-मूल्य (reputational value) का ह्रास
और मूर्त भौतिक संपत्ति का वर्चस्व हो गया है।
सांस्कृतिक पूंजी अब मीम जैसी हँसी की वस्तु बन गई है।
4. मूल्य और पूंजी का हास्यपूर्ण विमर्श
इस मीम में विद्वत्ता-त्याग-मूल्य और बाजार-धन-मूल्य के बीच
अदृश्य प्रतिस्पर्धा चल रही है।
कहानी कहती है:
विद्वत्ता = त्याग = पुण्य
यह मीम कहता है:
विद्वत्ता = गरीबी = हँसी का पात्र
यह मूल्य-तंत्र का विघटन है।
ब्राह्मण की दीनता कभी नैतिक पूंजी थी, अब symbolic devaluation हो गया।
5. गिफ्ट इकोनॉमी बनाम मार्केट इकोनॉमी
ब्राह्मण की व्यवस्था दान और उपहार आधारित अर्थव्यवस्था (gift economy) थी।
संपत्ति अनिवार्य विनिमय नहीं, बल्कि स्वेच्छा का दान थी।
जैसे ही बाज़ार आधारित विनिमय (market exchange) आया, ब्राह्मण व्यवस्था अप्रासंगिक हो गई।
यह मीम इस संक्रमण को हँसी और व्यंग्य से रेखांकित करता है।
6. मीम का अर्थशास्त्रीय उपभोग
यह मीम स्वयं एक अ-सामान्य अर्थव्यवस्थात्मक वस्तु है।
यह धन पैदा नहीं करता, पर ध्यान और सांस्कृतिक पूंजी अर्जित करता है।
इस मीम का उपभोग सांस्कृतिक मुद्रा (cultural currency) के विनिमय का हिस्सा है।
लोग इसे शेयर, रीमिक्स और मज़ाक में बदलकर attention economy का हिस्सा बना रहे हैं।
"एक दरिद्र ब्राह्मण था…"
यह मीम भारतीय सांस्कृतिक-आर्थिक संक्रमण का प्रतीक है।
यह सांस्कृतिक पूंजी के अवमूल्यन,
दक्षिणायन होते वितरण-तंत्र,
और बाजारोन्मुख समाज में परंपरागत श्रेणियों की गिरावट का चुटीला बयान है।
साथ ही यह बताता है कि
अब हमारी सांस्कृतिक स्मृति भी उपभोग और हास्य का बाज़ार बन गई है।
VI. मीम का मनोगतिकीय पक्ष
1. पहचान और स्मृति का खेल: कोई भी मीम तभी असर करता है जब वह अवचेतन में पहले से जमी किसी सांस्कृतिक स्मृति या छवि को छूता है।
"एक दरिद्र ब्राह्मण था…" वाक्य हमारे सामूहिक अवचेतन में पुरानी कथाओं के रूप में सुरक्षित है।
आज जब यह मीम बनता है, तो यह एक साथ दो स्तर पर खेलता है:
सांस्कृतिक पहचान : हाँ, ये तो वही है जो हम बचपन में सुनते थे।
नया व्यंग्यात्मक अर्थ : अब इस छवि का मज़ाक उड़ाया जा रहा है।
यानी यह मीम स्मृति और नव-सृजन के बीच एक द्वैत रचता है।
2. दीनता और श्रेष्ठता की द्वंद्वात्मकता: दरिद्र ब्राह्मण की छवि में दो विरोधी बातें छिपी हैं:
दरिद्रता (असहायता)
विद्वत्ता और श्रेष्ठता (सांस्कृतिक ऊँचाई)
यह द्वंद्व हमारे मन में ‘मैं असहाय हूँ लेकिन भीतर से श्रेष्ठ हूँ’ जैसी अवचेतन भावना को छूता है।
आज जब लोग इस मीम का उपयोग करते हैं, तो वे या तो:
खुद को दीन-विद्वान के रूप में दिखाते हैं या किसी और की नकली श्रेष्ठता का मज़ाक बनाते हैं।
यानी यह मीम हमारे अहं और हीनभावना — दोनों को साधता है।
3. सत्ता और हास्य: यह मीम एक तरह से सत्ता-संबंधी तनाव का हल्का, हँसोड़ रूप है।
क्लासिकल ब्राह्मण की जो नैतिक श्रेष्ठता और सामाजिक संरक्षित स्थिति थी, आज जब वह विखंडित हो चुकी है, तब इस मीम के ज़रिए लोग इस विसंगति पर हँसते हैं।
हास्य एक defense mechanism है — जो कभी हीनता छुपाने, कभी सत्ता-संरचना को चुनौती देने का ज़रिया होता है।
यह मीम भी सत्ता-संबंधी यादों और बदलती पहचान का मनोगतिकीय विसर्जन (catharsis) है।
4. Nostalgia और Irony का समिश्रण: नॉस्टेल्जिया हमें पुरानी दुनिया की मासूमियत की याद दिलाता है, और irony बताती है कि उस मासूमियत के पीछे कितनी सामाजिक विषमता और बनावटी श्रेष्ठता छुपी थी।
जब कोई इस मीम को दोहराता है, तो अवचेतन में वह दोनों ही भावनाएँ एक साथ जीता है:
“क्या समय था वो भी”
“देखो कैसा ढकोसला था”
VII. "एक दरिद्र ब्राह्मण था" पर
उत्तर-औपनिवेशिक (Postcolonial) दृष्टि
Postcolonial theory मुख्यतः यह देखती है कि उपनिवेशवाद द्वारा बनाई गई सत्ता-संरचनाएँ, पहचान, जाति, वर्ग, और सांस्कृतिक विमर्श को किस तरह प्रभावित करती हैं। कैसे औपनिवेशिक ज्ञान और सत्ता अब भी सांस्कृतिक स्मृतियों और विमर्शों में जीवित है।
"एक दरिद्र ब्राह्मण था" की उत्तर-औपनिवेशिक व्याख्या
1. औपनिवेशिक निर्माण और ब्राह्मणत्व
ब्राह्मण-प्रतिमा, जिसे उपनिवेशवाद ने एक 'एथनिक आइकन' की तरह स्थापित किया था, जैसे कि 'the wise native', 'the priestly race' जो औपनिवेशिक काल में दोहरा चरित्र बन गई:
एक ओर सांस्कृतिक श्रेष्ठता का प्रतीक
दूसरी ओर उपनिवेशित समाज का राजनीतिक रूप से अक्षम पात्र।
इस मीम में "दरिद्र ब्राह्मण" वही औपनिवेशिक करुणा-आधारित प्रतिमा है,
जिसे आधुनिक भारत में हास्य-व्यंग्य में बदला जा रहा है।
यह औपनिवेशिक स्मृति का विघटन भी है।
2. उपनिवेशोत्तर अस्मिता-विवाद
भारत में ब्राह्मणवाद स्वयं एक औपनिवेशिक विमर्श के भीतर संरक्षित और पुनरावृत्त हुआ।
"ब्राह्मण दरिद्र" होना इस विमर्श के भीतर वर्ग-न्याय और जाति-संघर्ष का नया दृश्य बनाता है।
मीम में छिपा संदेश:
उपनिवेशोत्तर समाज अब ब्राह्मणवाद की उस सांस्कृतिक श्रेष्ठता को अस्वीकार कर रहा है
जिसे कभी औपनिवेशिक शासन ने 'प्रामाणिक भारतीयता' का प्रतिनिधि माना था।
यह ब्राह्मणत्व की औपनिवेशिक स्मृति का पोस्टकोलोनियल विखंडन है।
3. हास्य, उपहास और उत्तर-औपनिवेशिक प्रतिरोध
मीम में हास्य एक औज़ार है।
उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टि से हास्य का प्रयोग
औपनिवेशिक ज्ञान-संरचनाओं को तोड़ने और नवसृजनात्मक प्रतिरोध रचने के लिए होता है।
"एक दरिद्र ब्राह्मण" का उपहास,
दरअसल उपनिवेशोत्तर सांस्कृतिक राजनीति का एक उपविमर्श है, जो कहता है —
अब न तो ब्राह्मण पुराना है,
न उसकी औपनिवेशिक छवि।
और न ही उसकी सांस्कृतिक श्रेष्ठता।
वह आज दरिद्र है — और इसी दरिद्रता में उसका मिथक टूट रहा है।
यह मीम मार्क्सवादी दृष्टि में वर्ग-संघर्ष है, हीगेलियन में सांस्कृतिक द्वंद्व है और पोस्टकोलोनियल दृष्टि में यह औपनिवेशिक स्मृति और शक्ति-संबंधों का विघटन है।
ब्राह्मण अब 'वाइज़ नेटिव' नहीं,
बल्कि अपनी औपनिवेशिक विरासत का विखंडित पात्र है।
"एक दरिद्र ब्राह्मण था" उपनिवेशोत्तर भारत की सांस्कृतिक चेतना का संकेतक है।
यह ब्राह्मणवाद की औपनिवेशिक निर्मिति का विघटन और हास्यात्मक पुनर्पाठ है और इसी में इसकी संवेदनशील राजनैतिकता छुपी है।
हां, तो "किसी नगर में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था।"
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