I. राजनीति: एक उद्योग के रूप में
राजनीति को अक्सर एक सेवा या जनकल्याण का माध्यम माना जाता है, परंतु आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह एक उद्योग का रूप ले चुकी है। इस उद्योग में नेता इनट्रेप्रेन्यर की तरह कार्य करते हैं, जिनका उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्त करना नहीं, बल्कि सत्ता के माध्यम से संसाधनों का अधिकतम दोहन करना और अपने "ब्रांड" को बाज़ार में स्थापित करना होता है।
जनता इस उद्योग की ग्राहक है। वह नेता से आशा खरीदती है—रोज़गार, सुरक्षा, विकास, न्याय और सम्मान की आशा। बदले में वह नेता को वोट या सामाजिक समर्थन देती है। यह लेन-देन एक बाजार की तरह होता है, जिसमें भावनाएं, पहचान, धर्म, जाति और विकास के वादे "प्रॉडक्ट" की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं।
राजनीति में पार्टियाँ ओलिगोपोली का निर्माण करती हैं—कुछ बड़ी कंपनियों की तरह, जो बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। छोटे दल या नए इनट्रेप्रेन्यर (नेता) इस बाज़ार में प्रवेश करना चाहते हैं, परंतु "बैरीयर्स टु एंट्री" यानी संसाधनों की कमी, प्रचार की सीमाएं, सामाजिक नेटवर्क की अनुपलब्धता और मीडिया एक्सेस की कठिनाइयाँ उन्हें रोकती हैं।
हर चुनाव अभियान एक बड़े मार्केटिंग कैम्पेन की तरह होता है। विज्ञापन, नारे, रैली, सोशल मीडिया प्रचार, और व्यक्तिगत ब्रांडिंग राजनीति के विज्ञापन तंत्र का हिस्सा हैं। नेताओं की लोकप्रियता "मार्केट शेयर" की तरह मापी जाती है—जनमत सर्वेक्षण, फॉलोअर्स की संख्या, मीडिया में उपस्थिति, और चुनावी प्रदर्शन इस मार्केट शेयर को दर्शाते हैं।
पार्टियों के बीच गठबंधन (कोएलिशन) ठीक उसी प्रकार होते हैं जैसे उद्योगों में संयुक्त उद्यम (joint ventures)—कभी संसाधन साझा करने के लिए, कभी बाज़ार के बंटवारे के लिए, तो कभी प्रतियोगी को हराने के लिए।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आधुनिक लोकतंत्र में राजनीति का चरित्र एक उद्यम की तरह बन गया है। नैतिकता, सेवा और कर्तव्य की बातें मंचों पर कही जाती हैं, पर पीछे वास्तविक उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति और उसके ज़रिए संसाधनों का नियंत्रण होता है।
II. कुछ गहराई से आर्थिक विश्लेषण: एक ओलिगोपोलिस्टिक इंडस्ट्री का रूप
राजनीति के अर्थशास्त्र को थोड़ी गहराई से समझने के लिए हम इसे एक ओलिगोपोलिस्टिक मार्केट स्ट्रक्चर में रख सकते हैं, जिसमें सीमित संख्या में फर्म (यहाँ राजनीतिक पार्टियाँ) बाज़ार (यहाँ मतदाता) पर नियंत्रण रखती हैं, और उनके व्यवहार में रणनीतिक परस्पर निर्भरता पाई जाती है।
1. उद्योग के कारक:
a) उत्पाद:
राजनीति में "उत्पाद" ठोस नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक होता है—जैसे विकास का वादा, जातिगत/धार्मिक पहचान, न्याय, सुरक्षा, आदि। ये "सांस्कृतिक वस्तुएँ" (cultural goods) हैं जिनकी कीमत आशा और विश्वास से चुकाई जाती है।
b) ग्राहक:
जनता ग्राहक की भूमिका निभाती है। उसकी मांग रोज़गार, सुरक्षा, सेवाएँ, न्याय जैसी वस्तुओं की होती है। वह अपनी क्रयशक्ति के रूप में "वोट" और "समर्थन" का प्रयोग करती है।
c) कीमत:
कीमत का भुगतान धन से नहीं, बल्कि वोट के रूप में होता है। यह एक नॉन-मॉनेटरी एक्सचेंज इकॉनमी है, जहाँ प्रतीकात्मक पूंजी (symbolic capital) की महत्ता होती है।
2. बाजार संरचना और प्रविष्टि की बाधाएँ (Barriers to Entry):
राजनीति में नए नेताओं या पार्टियों का प्रवेश कठिन है। इसके पीछे प्रमुख बाधाएँ हैं:
सूचना और प्रचार तक सीमित पहुँच: मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया पर नियंत्रण पुराने दलों के पास है।
नेटवर्क एक्सेस: पूंजीपति, नौकरशाही, धार्मिक संगठनों, और लोकल सत्ता केन्द्रों तक पहुँच पुराने खिलाड़ियों की होती है।
संस्थागत पूंजी की कमी: पार्टी संगठन, कार्यकर्ता, अनुभव, और पहचान एकत्र करने में वर्षों लगते हैं।
वोटर लॉयल्टी: ब्रांड की तरह पार्टियों के साथ भावनात्मक जुड़ाव होता है, जो रैशनल चॉइस (rational choice) को सीमित करता है।
3. ओलिगोपॉली और कोएलिशन का व्यवहार:
राजनीतिक दलों के व्यवहार में हमें ओलिगोपॉली मॉडल के तत्व दिखाई देते हैं:
कूर्नो व्यवहार (Cournot): प्रत्येक पार्टी मानती है कि अन्य पार्टियाँ अपनी रणनीति नहीं बदलेंगी और उसी हिसाब से अपना वोट शेयर तय करती है।
बर्ट्रांड प्रतिस्पर्धा (Bertrand): जब नेता एक-दूसरे से बेहतर वादे करते हैं—मुफ़्त बिजली, आरक्षण, कैश ट्रांसफर—तो यह बर्ट्रांड-स्टाइल अंडरकटिंग है।
कोल्यूजन: गठबंधन उसी तरह काम करता है जैसे कार्टेल; पार्टियाँ मिलकर संसाधन बाँटती हैं, सीटें तय करती हैं, और विरोध को सीमित करती हैं।
4. विज्ञापन और ब्रांडिंग: राजनीतिक विज्ञापन का अर्थशास्त्र
नेता और दल अपने ब्रांड इक्विटी को बढ़ाने में निवेश करते हैं। चुनाव प्रचार पर होने वाला भारी खर्च ब्रांड रिकॉल, पर्सेप्शन मैनेजमेंट, और इमोशनल रिजोनेन्स को लक्ष्य करता है।
Positive Advertising: "हमने विकास किया" टाइप संदेश
Negative Advertising: विरोधी पर भ्रष्टाचार या असफलता का आरोप
Targeted Advertising: जाति/धर्म आधारित नैरो-कास्टिंग
यह सब एक इन्फॉर्मेशनली डिस्टॉर्टेड मार्केट बनाता है, जहाँ ग्राहक (जनता) के पास परफेक्ट इनफॉर्मेशन नहीं होती।
5. रिटर्न ऑन पॉलिटिकल इन्वेस्टमेंट (ROPI):
राजनीति में निवेश केवल प्रचार में नहीं होता, बल्कि लोग और संगठन नेता में इन्वेस्ट करते हैं, भविष्य में लाभ की आशा में:
कॉर्पोरेट्स: नीतियों और ठेकों में अनुकूलता
ब्यूरोक्रेसी: पदोन्नति और संरक्षण
माफिया/काला धन: संरक्षण और वैधता
एक बार सत्ता प्राप्त होने पर यह निवेश रेट ऑफ रिटर्न के साथ लौटाया जाता है—कभी नीति द्वारा, कभी ठेके द्वारा, कभी संरक्षण द्वारा।
6. एक्सटर्नलिटी और सोशल कॉस्ट:
राजनीतिक उद्योग की गतिविधियाँ नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज उत्पन्न करती हैं:
ध्रुवीकरण, सामाजिक तनाव, संस्थाओं की क्षरण,
लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में अविश्वास,
सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण
ये सब समाज पर दीर्घकालिक सामाजिक लागत (social cost) डालते हैं, जो अक्सर दिखाई नहीं देती।
III. राजनीति: एक सूचना-असममिति (information asymmetry) और बाजार विफलता (market failure) के सन्दर्भ में विश्लेषण
1. सूचना-असममिति (Information Asymmetry)
सूचना असममिति का अर्थ है – एक पक्ष (नेता/पार्टी) के पास ज्यादा और बेहतर जानकारी होती है, जबकि दूसरे पक्ष (जनता/मतदाता) को अधूरी, भ्रामक या विकृत जानकारी मिलती है। इससे निर्णय-निर्माण प्रभावित होता है।
a) adverse selection (विपरीत चयन):
नेता वादों और प्रचार द्वारा अपने को "उत्तम विकल्प" दिखाता है, लेकिन उसके वास्तविक इरादे या योग्यता को जनता नहीं पहचान पाती। इससे ऐसे नेता चुने जाते हैं जो लोकसेवा नहीं, बल्कि निजी हितों के लिए राजनीति में आते हैं।
उदाहरण:
चुनाव में कोई भ्रष्ट नेता खुद को "ईमानदार विकास पुरुष" के रूप में प्रचारित करता है, और जनता उसे चुन लेती है, क्योंकि उसकी असली पृष्ठभूमि छुपा दी गई थी।
b) moral hazard (नैतिक जोखिम):
नेता चुन लिए जाने के बाद, जनता को जवाबदेह नहीं रहता क्योंकि उसे विश्वास होता है कि जनता 5 साल तक कुछ नहीं कर सकती। इससे वह नीतिगत भ्रष्टाचार, पक्षपात या गैर-जवाबदेह आचरण करता है।
उदाहरण:
चुनाव जीतने के बाद सरकारी योजनाओं में पैसे का दुरुपयोग, अपनों को लाभ देना, और जनता से दूरी बना लेना—क्योंकि उसे पता है कि अगला चुनाव दूर है और जवाबदेही धुंधली है।
c) signaling failure (संकेत विफलता):
राजनीतिक प्रचार का शोर इतना अधिक होता है कि सत्य और झूठ में फर्क करना कठिन हो जाता है। नेता जो कह रहा है, वह सच है या नहीं, इसका निर्धारण कठिन हो जाता है।
उदाहरण:
सोशल मीडिया में योजनाओं के झूठे आँकड़े या बनावटी इमेज बना देना—जैसे कि “15 लाख आएँगे”, “हर साल 2 करोड़ नौकरी”, आदि।
2. मार्केट फेल्यर (Market Failure)
जब राजनीति एक उद्योग है, तो बाजार जैसे ही फेल्यर इसमें होते हैं—मतलब यह कि निर्णय कुशल, निष्पक्ष, या सामाजिक रूप से कल्याणकारी नहीं होते।
a) Negative externalities (ऋणात्मक बाह्यताएँ):
राजनीतिक गतिविधियाँ समाज में ध्रुवीकरण, हिंसा, अविश्वास और नैतिक क्षरण को बढ़ावा देती हैं।
उदाहरण:
चुनावी ध्रुवीकरण के लिए धर्म या जाति का उपयोग, जिससे समाज में तनाव और विभाजन उत्पन्न होता है—जिसकी लागत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है।
b) Public goods का underprovision:
राजनीति में वोट पाने के लिए लोकल या जाति-विशेष योजनाओं को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, पर्यावरण जैसे सार्वजनिक वस्तुओं को नजरअंदाज़ किया जाता है।
उदाहरण:
बजट में मंदिर या जाति विशेष के छात्रों को लैपटॉप बाँटना प्राथमिकता है, लेकिन प्राथमिक स्कूलों की मरम्मत या स्थानीय अस्पतालों में डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं।
c) Regulatory capture:
राजनीतिक दल और नेता नियामक संस्थाओं को अपने हित में "कैप्चर" कर लेते हैं—यानी वे संस्थाएँ (जैसे चुनाव आयोग, मीडिया, पुलिस, CBI, न्यायपालिका) जो जनता के हित में काम करनी चाहिए, नेताओं के हित में काम करने लगती हैं।
उदाहरण:
चुनाव के दौरान विपक्ष को परेशान करना, मीडिया का पक्षपातपूर्ण कवरेज, या जांच एजेंसियों का दुरुपयोग, और बहुधा न्याय-व्यवस्था का दुरुपयोग।
d) Monopoly और Oligopoly:
जैसा पहले बताया गया—राजनीति में कुछ ही पार्टियाँ पूरे देश के राजनीतिक बाजार पर नियंत्रण रखती हैं। इससे विकल्पों की कमी, घटिया सेवा और उच्च सूचना नियंत्रण होता है।
उदाहरण:
एक राज्य में दो ही प्रमुख दल हैं। जनता को उनके बीच चुनना है, भले ही दोनों ही भ्रष्ट हों—क्योंकि तीसरे विकल्प का अस्तित्व नहीं है।
इस तरह राजनीति का बाज़ार एक असमान, विकृत और रणनीतिक रूप से नियंत्रित प्रणाली बन चुका है, जिसमें:
जनता अधूरी या भ्रामक जानकारी के आधार पर निर्णय लेती है,
अच्छे विकल्प चुनाव से बाहर हो जाते हैं,
चुने गए नेता जवाबदेह नहीं होते,
और सार्वजनिक हित के बजाय निजी/राजनीतिक लाभ केंद्र में आ जाता है।
यह सब मिलकर लोकतांत्रिक पूंजीवाद को कमजोर करते हैं और नीति निर्धारण को लोककल्याण की बजाय लाभ-प्रेरित बना देते हैं।
IV. राजनीति के बाजार को इक्विलिब्रियम, स्थिरता, कुशलता (efficiency), न्यायपरता (equity) और कल्याणप्रदता (welfare) जैसे आर्थिक मानकों की कसौटी पर कसते हैं, तो स्पष्ट होता है कि यह बाज़ार अक्सर इन आदर्शों से दूर होता है। हम इसकी एक-एक करके समालोचना करते हैं।:
1. इक्विलिब्रियम (Equilibrium):
राजनीतिक अर्थ में क्या है इक्विलिब्रियम?
राजनीति में इक्विलिब्रियम वह स्थिति है जब वोटर डिमांड (उनकी अपेक्षाएं) और राजनीतिक सप्लाई (नेताओं के वादे और नीतियाँ) एक स्थिर स्थिति पर पहुँच जाती हैं, जहाँ पार्टियाँ अपने वोट शेयर और संसाधन नियंत्रण से संतुष्ट होती हैं, और जनता अपनी अपेक्षाओं से।
वास्तविकता में:
यह इक्विलिब्रियम आंशिक और अस्थायी होता है।
जनता की अपेक्षाएं लगातार बदलती हैं (जैसे युवा मतदाता, तकनीकी बदलाव),
पार्टियाँ अपने वादे बदलती रहती हैं (populism, freebies),
बाहरी शॉक (महंगाई, युद्ध, महामारी) असंतुलन पैदा करते हैं।
इस तरह यह एक dynamic disequilibrium system है, जो बार-बार नई अस्थिरताओं की ओर झुकता है। इसलिए स्टैटिक इक्विलिब्रियम मॉडल इस पर सटीक नहीं बैठता।
2. स्थिरता (Stability):
राजनीतिक प्रणाली में स्थिरता वह है जब शासन प्रणाली, नीतियाँ और सत्ता-संक्रमण सुचारु रूप से होता है। परंतु:
गठबंधन सरकारें अक्सर अस्थिर होती हैं।
जन-असंतोष या आंदोलन बार-बार अस्थिरता लाते हैं।
हिंसा, ध्रुवीकरण, और फेक न्यूज़ स्थायित्व को चुनौती देते हैं।
इस तरह यह प्रणाली स्थायित्व के बजाय सतत संघर्ष (flux) में रहती है, जहाँ पार्टियाँ वोटर बेस को पुनर्परिभाषित कर सत्ता बनाए रखने की होड़ में लगी रहती हैं।
3. कुशलता (Efficiency):
अर्थशास्त्र में "कुशलता" का अर्थ होता है संसाधनों का वहनशील, अपव्यय रहित, और अधिकतम उत्पादक उपयोग।
राजनीति में संसाधनों का उपयोग मतदाताओं को लुभाने के लिए किया जाता है, न कि सामाजिक उत्पादकता बढ़ाने के लिए।
वोट खरीद, फ्रीबी, जाति/धर्म आधारित सब्सिडी = एलोकेटिव इनइफिशिएंसी
घोटाले, पक्षपातपूर्ण नीति = प्रोडक्टिव इनइफिशिएंसी
इस तरह यह उद्योग एक systematic inefficient allocator है—जो सामाजिक लाभ के बजाय राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता देता है।
4. न्यायपरता (Equity):
एक राजनीतिक इकाई से अपेक्षा होती है कि वह समाज में न्याय, समता और समावेशन को बढ़ावा देगी। वास्तविकता में:
धार्मिक/जातिगत राजनीति अक्सर बहिष्करण को बढ़ाती है।
क्रोनी कैपिटलिज़्म और राजनीतिक संरक्षण आर्थिक विषमता को बढ़ाते हैं।
आरक्षण और सब्सिडी का वितरण अक्सर तर्कहीन और वोट-केन्द्रित होता है।
निष्कर्षतः Equity की दृष्टि से यह बाज़ार selective justice और असमान अवसर उत्पन्न करता है
5. कल्याणप्रदता (Welfare):
कुल सामाजिक कल्याण का अर्थ होता है—सभी वर्गों को नीति का लाभ, दीर्घकालिक स्थायित्व, और समाज में सकारात्मक पूंजी का निर्माण।
क्या राजनीति यह कर रही है? नहीं। क्योंकि:
लघुकालिक फायदों (cash transfers, free electricity) से लॉन्ग टर्म इंस्टीट्यूशनल डिवेलपमेंट को हानि होती है।
वादों की प्रतिस्पर्धा में फिस्कल डिसिप्लिन का अभाव।
राजनीति अक्सर emotive mobilization पर केंद्रित रहती है, human capital building पर नहीं।
तो हम देखते हैं कि राजनीति कल्याण का भ्रम उत्पन्न करती है, जबकि वास्तविक कल्याण केवल चुनिंदा समूहों को मिलता है।
V. क्या Disequilibrium Analysis ज्यादा सटीक है? में
हाँ। राजनीतिक अर्थव्यवस्था एक non-equilibrium system है, जहाँ:
शक्ति-संतुलन लगातार बदलता है,
जन अपेक्षाएं और तकनीकें गतिशील हैं,
गठबंधन और बाहरी शक्तियाँ स्थायित्व को चुनौती देती हैं,
सूचना विषमता और भावनात्मक ध्रुवीकरण स्थायी संतुलन बनने नहीं देते।
Disequilibrium analysis यह मानकर चलता है कि:
संसाधनों का गलत वितरण स्थायी है,
सुधार का रास्ता discontinuous और conflict-prone है,
राजनीतिक प्रतिरोध और असंतुलन ही परिवर्तन के ट्रिगर होते हैं।
इस समीक्षा के निष्कर्ष में अंतिम कथन:
राजनीति उद्योग है - यह एक डायनामिक, डिसइक्विलिब्रियम, इनइफिशिएंट और इनइक्विटस इंडस्ट्री है, जिसमें कल्याण एक उपउत्पाद (byproduct) है, मुख्य उत्पाद नहीं।
VI. राजनीति एक उद्योग: भारत के संदर्भ में समालोचनात्मक विश्लेषण
भारत की राजनीति को यदि एक उद्योग माना जाए, तो इसमें नेता उद्यमी होते हैं, जनता ग्राहक होती है, वोट मुद्रा का रूप ले लेता है, और सत्ता तथा संसाधनों का दोहन इस उद्योग का प्रमुख लक्ष्य बन जाता है। इस उद्योग की संरचना आर्थिक दृष्टिकोण से न तो स्थिर है, न कुशल, और न ही कल्याणप्रद। बल्कि यह एक ऐसा बाज़ार है जो लगातार डिस-इक्विलिब्रियम, सूचना विषमता, और संकुचित प्रतिस्पर्धा से जूझता रहता है।
1. असंतुलन ही स्थायी अवस्था है
भारतीय राजनीति में कभी स्थायी संतुलन नहीं आता। सत्ता दल और विपक्ष, केंद्र और राज्य, ग्रामीण और शहरी मतदाता—इनके बीच लगातार खींचतान बनी रहती है। कोई भी दल लंबे समय तक सर्वमान्य नहीं रह पाता; जन अपेक्षाएँ तेजी से बदलती हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा जैसे तत्व चुनावी समीकरणों को निरंतर उलटते रहते हैं।
नतीजा: भारत की राजनीति एक सतत प्रवाहशील असंतुलन प्रणाली बन गई है, जहाँ नेता रणनीति बदलते रहते हैं और जनता अपने "ग्राहक हित" के अनुसार पक्ष बदलती रहती है।
2. स्थिरता का ढकोसला, गठबंधनों का जाल
भारत में सरकारें अक्सर गठबंधन पर टिकी होती हैं। इनका स्थायित्व संख्या-बल और अवसरवादी सहयोगियों पर निर्भर रहता है। दल-बदल, समर्थन वापसी, या बाहरी समर्थन की धमकी अक्सर राजनीतिक अस्थिरता का कारण बनती है।
इसका एक और रूप प्रशासनिक स्थायित्व की कमी है—नीतियाँ बार-बार बदलती हैं, योजनाओं के नाम बदल जाते हैं, और नई सरकार आने पर पहले की योजनाएँ नकार दी जाती हैं।
नतीजा: यह बाज़ार ऊपर से भले स्थिर दिखे, अंदर से अस्थिरता उसकी प्रकृति में है।
3. कुशलता नहीं, लोक-लुभावन वादों का बोलबाला
राजनीति में संसाधन वहाँ लगाए जाते हैं जहाँ से अधिकतम वोट मिल सकता है, न कि वहाँ जहाँ उनकी समाज को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। फ्री बिजली, कर्ज़माफी, जातिगत स्कीमें—ये सब वोटर को तुरंत प्रभावित करते हैं, पर दीर्घकाल में राज्य की वित्तीय सेहत बिगाड़ते हैं।
राजकोषीय घाटा बढ़ता है
स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में निवेश घटता है
प्रणालीगत सुधार ठप्प पड़ जाते हैं
नतीजा: संसाधनों का आवंटन "राजनीतिक कुशलता" के आधार पर होता है, न कि "सामाजिक कुशलता" के आधार पर।
4. न्याय की जगह सांकेतिक प्रतिनिधित्व
भारतीय राजनीति में "समावेशन" का नाम लेकर अक्सर जातिगत ध्रुवीकरण किया जाता है। आरक्षण, धर्म आधारित अपील, और क्षेत्रीय भावनाओं का दोहन यह दिखाता है कि राजनीति "न्याय" नहीं, "सांकेतिक प्रतिनिधित्व" देने की कोशिश करती है।
इसका परिणाम है:
वास्तविक जरूरतमंदों की उपेक्षा,
जनसंख्या समूहों का राजनीतिककरण,
और गैर-बराबरी को संस्थागत रूप देना।
नतीजा: न्याय यहाँ सिद्धांत नहीं, साधन बन जाता है।
5. कल्याण की जगह उसका नाटक
राजनीतिक दल योजनाओं को इस तरह पेश करते हैं मानो वे देने वाले हैं, जबकि वे जनता के ही पैसे से वही संसाधन वापस बाँट रहे होते हैं। कल्याण-राज्य के नाम पर वोटरों को "ग्राहक" बना दिया जाता है, जिनका वोट खरीदने के लिए वादों और सौगातों की बिक्री होती है।
कल्याण योजनाएँ असमान रूप से लागू होती हैं
भ्रष्टाचार और लीकेज योजनाओं की मारक शक्ति कम करते हैं
जनता आश्रित बनती जाती है, सशक्त नहीं
नतीजा: असली कल्याण नहीं, उसका "अनुभव" या "आभास" पैदा किया जाता है।
सूचना विषमता और बाज़ार विफलता: गहरी समस्या
भारत की राजनीति में जनता और नेता के बीच सूचना का गंभीर असंतुलन है। मतदाता के पास अक्सर:
नीतियों की पूरी जानकारी नहीं होती,
प्रचार और वादों में सच-झूठ की पहचान नहीं होती,
और मीडिया व सोशल मीडिया से मिलने वाली जानकारी पक्षपाती होती है। यहां तक कि शिक्षा भी राजनीतिक apologia बन जाती है और स्वार्थी इंटेलिजेंट्सिया चाटुकारिता पर उतर आती है।
यह सूचना विषमता (information asymmetry) का क्लासिक उदाहरण है, जिससे मतदाता गलत निर्णय ले सकते हैं।
इससे जुड़ी बाज़ार विफलताएँ (market failures):
वोट खरीदना = मूल्य विकृति
क्रोनी पूंजीवाद = संसाधन आवंटन की विफलता
भावनात्मक ध्रुवीकरण = विवेकपूर्ण मांग की अनुपस्थिति
निष्कर्ष: लोकतांत्रिक बाज़ार, पर असमान सौदा
भारतीय राजनीति एक ऐसा उद्योग बन चुकी है जिसमें असली वस्तु "नीति" नहीं, बल्कि "प्रभाव", "छवि", और "वादे" हैं। इसमें प्रतिस्पर्धा है, पर बाधाएँ भी हैं। इसमें ग्राहक हैं, पर भ्रमित। इसमें बाजार है, पर पारदर्शिता नहीं। और इसमें परिवर्तन है, पर प्रगति अनिश्चित।
इस बाज़ार की समीक्षा केवल डिसइक्विलिब्रियम और संरचनात्मक दोषों के आधार पर ही की जा सकती है। कोई स्थिर मॉडल इसे पूरी तरह नहीं पकड़ सकता। इसकी प्रकृति ही है—उथल-पुथल से स्थायित्व की कोशिश।